खुल गईं। उस समय जो मेरे मन में भय हुआ वह कह कर कैसे समझाऊँ? इस मानव-शून्य द्वीप में मेरा नाम ले कर कौन पुकारता है? आँखें मल कर चारों ओर ध्यान से देखते ही मेरा भ्रम जाता रहा। मैंने देखा, घेरे के ऊपर मेरा पाला हुआ आत्माराम नामक सुग्गा बैठ कर मेरी ही सिखाई बोली बोल रहा है।
तब मेरा भय दूर हुआ सही, परन्तु मुझे यह सोच कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आत्माराम पीजरे से क्योंकर निकल पाया। यदि पींजरे से निकल ही आया तो ठीक उसी जगह आ कर क्यों बैठा? मैंने इस पर विशेष तर्क-वितर्क न कर के हाथ बढ़ा कर उसका नाम ले कर पुकारा। पुकारते ही वह फ़ौरन वहाँ से उड़ कर मेरे हाथ पर आ बैठा और बोलने लगा "राबिन, राबिन, राबिन क्रूसो, तू इतने दिन कहाँ था? फिर कहाँ पाया?" मैं उसको ले कर अपने घर आया।
इस समय डोंगी के लिए मेरा मन ललचाने लगा। अहा, यदि उसे इस ओर ला सकता तो कैसा अच्छा होता! किन्तु लाता कैसे? पूरब ओर घूम कर? नहीं बाप रे! इस बात की भावना करते ही मेरे हृदय का उषरण शोणित शीतल हो उठता है। अच्छा उस ओर से नहीं तो पच्छिम ओर से? कौन जाने उस ओर क्या है? इस प्रकार सोच विचार कर मैंने नाव की आशा छोड़ दी। यद्यपि उसके बनाने में बहुत परिश्रम हुआ था, और उसको पानी में उतार ले जाने में और भी अधिक कष्ट उठाना पड़ा था तथापि प्राण के आगे तो उसका कुछ मोल नहीं। प्राण से बढ़ कर तो वह प्रिय न थी।