मेरा परिचय पाकर क्रोध से भयानक मूर्ति धारण कर
बोला—-अभाग कहीं का, तेरे ही कारण मेरा सर्वनाश
हुआ । जा, तू अभी घर लौट जा । माँ-बाप की असम्मति से
यात्रा करके तू खुद मरेगा और दूसरों को भो मारेगा । कोई
मुझको लाख रुपया भी देगा तो भी जिस जहाज़ पर तू
रहेगा उस पर मैं पैर न रक्खूँगा । बच्चा ! समुद्रयात्रा का
मज़ा तो तुम ने खूब ही चखा, अब घर जाकर अपने माँ बाप
से जा मिलो ।
उन्होंने इस प्रकार भला-बुरा कह कर मुझे कितना ही समझाया-बुझाया । किन्तु मैं तो मरने ही पर कमर कसे था, इसलिए उनके उपदेश पर ध्यान न देकर वहाँ से निकल चला । जेब में खर्च के लिए कुछ रुपया आ ही गया था; अतएव स्थल-मार्ग से मैं लन्दन को रवाना हुआ । किन्तु रास्ते में दो ओर मेरे चित्त का खिंचाव होने लगा । एक बार मैं सोचता था कि "मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? समुद्र-यात्रा में क्या लाभ है ? घर लौट जाना ही अच्छा है ।" फिर अकारण लज्जा और चित्त का एक विचित्र झुकाव मुझे रोक लेता था । विशेष कर मनुष्यों की कम उम्र का स्वभाव बड़ा ही विलक्षण होता है । पाप करने में उसे कुछ लज्जा नहीं होती, बल्कि अनुताप द्वारा प्रायश्चित्त करके पाप के संशोधन करने ही में लज्जा मालूम होती है । जिस काम के करने से वे मूर्ख कहलायेंगे वह काम निःसंकोच होकरकरेंगे; किन्तु जिस काम के द्वारा उनके सद्ज्ञान का परिचय पाया जायगा वही करने में उनको शर्म लगती है ।
मैंने फिर समुद्रयात्रा की ही बात स्थिर की ।
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