जब हम लोग गिरफ़तार किये गये थे तब कप्तान ने कहा था कि तुम लोगों को प्राणभय न होगा। इस समय हम लोग उसी का स्मरण दिलाते हैं।" मैंने कहा-"मैं तुम लोगों के साथ कौन सा दया का व्यवहार करूँ, मेरी समझ में नहीं आता। मैंने इस टापू को छोड़ कर कप्तान के जहाज़ पर सवार हो इँगलैंड जाने का निश्चय किया है। तुम लोगों को इँगलैंड ले जाता हूँ तो वहाँ विद्रोह के अपराध में तुम लोगों का प्राणवध अनिवार्य होगा। इस लिए इस टापू में रहने के सिवा तुम लोगों की प्राण रक्षा का अन्य उपाय नहीं। यदि तुम लोग पसन्द करो तो मैं तुम लोगों को इस टापू में छोड़ सकता हूँ।" मेरी इतनी बड़ी दया देख वे लोग कृतज्ञतापूर्वक मेरे प्रस्ताव पर सम्मत हुए। तब मैंने उन लोगों को बन्धनमुक्त कर दिया।
मैंने कप्तान को यह कह कर जहाज़ पर भेज दिया कि जाओ, जहाज़ पर सब इन्तज़ाम ठीक करो। इधर मैं अपने साथ जहाज़ पर ले जाने योग्य वस्तुओं की व्यवस्था करने लगा। कल सबेरे जहाज़ पर सवार हो कर रवाना हूँगा।
कप्तान के चले जाने पर मैंने बन्दियों से कहा,-"तुम लोगों ने जो यहाँ रहना पसन्द किया यह बड़ा अच्छा किया। इँगलैंड जाने से तुम लोगों को ज़रूर फाँसी होती। यहाँ जीते-जागते तो रहोगे। विशेषतः पाँच आदमी एक साथ मिल कर बड़े सुख-चैन से रह सकोगे। मैं तो अकेला ही यहाँ इतने दिन बना रहा।" यह कह कर मैंने अपना सब इतिहास उनको कह सुनाया। द्वोप का और जीवन-निर्वाह का तत्व उन लोगों को समझा दिया। मैंने उन लोगों को अपना किला, घर-द्वार, खेत-खलिहान, और बकरों का गिरोह आदि सभी