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राबिन्सन क्रूसो।


लोलुपदृष्टि से चारों ओर ढूँढ़ने लगी। यदि मेरी स्वामिनी उस समय मर गई होती तो मैं उनका मांस नोच कर खाये बिना न रहती। उन पर मेरा असीम अनुराग था, इसीसे मैं रुक रही, नहीं तो उन्हें जीवित अवस्था ही में नोच खाती। दो-एक बार मैंने अपने ही सूखे हाथ का मांस दाँत से नोच कर खाने की चेष्टा की। उसी समय मेरी दृष्टि एकाएक उस लोहू पर जा पड़ी जो कल मेरी नाक से गिर कर जम गया था। मैं उसी घड़ी बड़ी आतुरता के साथ उसे मुँह में डाल कर जल्दी जल्दी निगलने लगी। मुझे इस बात का भय होने लगा कि शायद कोई देख ले तो कहीं छीन कर न ले जाय। उसके खाने से क्षुधा किञ्चित् शान्त हुई। थोड़ा सा पानी पीकर मैं कुछ देर के लिए स्थिर होगई। क्रमशः निराहार अवस्था में तीन दिन बीत गये, चौथा दिन आया, तब भी कुछ खाने को न मिला। रात में फिर वैसी ही भूख लगी; पेट में ज्वाला, वमन, तन्द्रा, हृत्कम्प, उन्माद और बेहोशी मालूम होने लगी। मैं बहुत देर तक रोई। फिर यह सोच कर, कि अब मरने ही में कुशल है, ज्यों त्यों कर पड़ रही।

"सारी रात बेचैनी में कटी। एक बार भी नींद न आई। क्षुधा के मारे पाकस्थली में बड़ी कठिन यन्त्रणा होने लगी। सबेरे मेरे नवयुवक सर्कार ने खूब ज़ोर से मुझे पुकार कर कहा-'सुसान, सुसान! देखो, देखो, मेरी माँ मर रही है।" मैंने ज़रा सिर उठा कर देखा, वह तब तक मरी न थी, पर उसके जीने का भी कोई लक्षण न था।

"मैं उदर की यन्त्रणा से न उठ सकी। इसी समय सब लोग चिल्ला उठे-'जहाज़ जहाज़!' तब सभी लोग मारे खुशी के शोर-गुल मचाते हुए उछलने-कूदने लगे। मैं पड़ी