टापू में रह जायँ।" मैंने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार करके उन्हें भी अपनी प्रजा में सम्मिलित कर लिया। एटकिंस के घर के समीप ठीक उसी के घर के नक्शे का एक घर बनवा कर उस नवयुवक को रहने के लिए दे दिया।
मेरे साथ जो पुरोहित आये थे वे बड़े धार्मिक, शिष्ट और साम्प्रदायिक विषय में खूब पहुँचे हुए थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा-देखिए साहब, आपकी अँगरेज़ प्रजा असभ्य जाति की स्त्रियों से पति-पत्नी का सम्बन्ध जोड़कर निवास कर रही है। परन्तु इन लोगों ने सामाजिक प्रथा या कानून के अनुसार ब्याह नहीं किया है। ऐसी अवस्था में संभव है कि जब ये लोग चाहेंगे तब इन निराश्रया रमणियों को छोड़ देंगे। इसलिए, इस दोषोद्धार के हेतु, उनका उन स्त्रियों से विधिपूर्वक ब्याह करा देना चाहिए। विवाह बन्धन कुछ साधारण सम्पर्क नहीं है कि जब चाहे उससे अलग हो जायँ। जब आप उन लोगों के नेता हैं तब उन लोगों के सम्पत्ति-सम्बन्धी शुभाशुभ के आप जैसे भागी हैं वैसे ही उनके नैतिक शुभाशुभ के भी। आपको उचित है कि उनको यथाविधि ब्याह दें।
मैंने उनकी धर्मनिष्ठा देख प्रसन्न होकर कहा-मुझे इतना समय कहाँ? मैं दूसरे के जहाज़ का एक यात्री मात्र हूँ। यहाँ रहने के लिए मैंने बारह दिन की छुट्टी ली है। इसके बाद जितने दिन विलम्ब करूँगा उतने दिनों के लिए पचास रुपये रोज़ के हिसाब से हर्जाना देना होगा। यहाँ मुझको आज तेरह दिन हो गये। अधिक विलम्ब करने से मुझे भी इसी टापू में रहना होगा। इस बुढ़ापे में फिर निर्वासन का, दुःख भोगने की इच्छा नहीं होती।