का ढङ्ग जानते थे। उन लोगों की पूँजी तीर-धनुष और टट्टू थे। वे लोग बीच बीच में हम लोगों पर आक्रमण करने लगे। किन्तु हम लोगों की बन्दूक़ के आगे उनकी एक न चली। वे भी तीर चलाने में बड़े दक्ष थे। उनके तीर का लक्ष्य प्रायः व्यर्थ न जाता था। भाग्यवश हम लोग किसी खतरे में न पड़े।
हम लोग नगरों से निकल कर मैदान में आ गये। जिधर दृष्टि जाती थी उधर मैदान ही मैदान देख पड़ता था। देखते ही जी घबरा उठता था। भय से हृदय काँप उठता था। हम लोग एक महीने तक इसी भाँति मैदान का सफ़र करते रहे। कभी कभी रास्ते में तातारों के छोटे छोटे दलों के साथ भेंट हो जाती थी, पर कोई कुछ बोलता न था। हम लोग भी उनकी ओर दृक्पात न कर के चुपचाप चले जाते थे।
मैदान पार कर के हम लोग एक गाँव में पहुँचे। वहाँ ऊँट और घोड़े बिकते थे। मुझे एक ऊँट मोल लेने का शौक़ हुआ। मैंने एक आदमी से एक ऊँट लाने को कहा। वह ले आता, किन्तु मेरे सभी कामों में उलझन लगी रहती थी, इससे मैं स्वयं गया। गाँव से दो मील पर मैदान के बीच ऊँटो और घोड़ों का बाज़ार था। मैं पगडंडी की राह से चला। साथ में वही वृद्ध पथ-दर्शक और एक चीनी मनुष्य था।
हम लोग एक ऊँट खरीद कर लौटे आ रहे थे। इसी समय पाँच तातारी घुड़सवार दौड़ कर आये। उनमें दो आदमी तो ऊँट छीन कर ले गये और तीन आदमियों ने आगे से आकर हम लोगों को घेर लिया। मेरे साथ सिर्फ़ एक तलवार