किसी को नहीं देखा और न किसी का कुछ पता पाया; सिर्फ
उन लोगों की तीन टोपियाँ और दो जोड़े जूते समुद्र के
किनारे इधर उधर पड़े दिखाई दिये ।
समुद्र के गर्भ में स्थित बालुकामय भूभाग में अटके हुए जहाज़ की ओर मैंने ध्यान से देखा । किन्तु तब भी समुद्र में फेन से भरी हुई इतनी तरंगों पर तरंगें चल रही थी कि मैं अच्छी तरह जहाज़ को न देख सका । तब मैंने मन में कहा-—भगवन, इस दुस्तर समुद्र से मुझे किस तरह किनारे निकाल लाये ?
इस अवस्था में यथासम्भव मन को सान्त्वना देकर मैं इधर उधर देखने लगा कि कहाँ कैसे स्थान में आ गया हूँ । मैं यह भी सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए । शीघ्र ही मेरे मन की सान्त्वना जाती रही । मैं एकाएक अधीर हो उठा । मैंने देखा; मैं बच कर भी भयंकर अवस्था में आ पड़ा हूँ मेरा तमाम बदन गीला था, पास में कोई दूसरा कपड़ा बदलने को न था, खाने-पीने की कोई चीज़ भी न थी और न वहाँ कोई ऐसा आदमी था जो मुझे कुछ आश्वासन देता । भूख-प्यास से या जंगली हिंस्त्र पशुओं के आक्रमण से सिवा मरने के जीने की आशा न थी । मेरे पास कई हथियार भी न था । मेरे पास कुल पूँजी बच रही थी एक छुरी, तम्बाकू पीने का एक नल और कुछ तम्बाकू । इन बातों को सोचते सोचते मैं पागल की तरह उस निर्जन स्थान में इधर उधर दौड़ने लगा ।
क्रमशः रात हुई । मैं चिन्तासागर में निमग्न हो कर सोचने
लगा-- अब तमाम हिंस्त्रजन्तु चरने के लिए निकलेंगे । संभव
है, वे मुझे देखते ही चबा डालें । इसके लिए क्या करें ? मेरी
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