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क्रूसो की कर्म-कारिता ।


सुई और डोरा तथा परिघेय वस्त्र के न रहने से मेरे गृहस्थी के कामों में बाधा पड़ने लगी। प्रत्येक कार्य का सम्पादन बहुत विलम्ब और कठिनता से होने लगा। इससे पहले तो जी में बड़ा रंज होता था, किन्तु फिर मैंने सोचा, कि कोई काम जल्दी होने ही से क्या लाभ। और काम ही क्या है, जिसके लिए समय बचाऊँगा? जब तक जिस काम में लगा रहूँगा तब तक उसी को मैं अपना कर्तव्य समझूँगा।

इन परिश्रमसाध्य कामों में लगे रहने से भी कभी कभी मेरा मन उदास और हताश हो जाता था। मैं दैवयोग से जिस स्थान में आ पड़ा था वह सर्वथा जनशून्य और सभ्यसमाज तथा वाणिज्य-पथ से बहिर्भूत था। यहाँ मैं अकेला था। यहाँ से उद्धार की भी कोई आशा न थी। यहाँ अकेले ही रह कर जीवन का शेष भाग बिताना होगा। यह चिन्ता जब मेरे मन में आती थी तब मैं बालक की तरह फूट फूट कर रोता था। धीरे धीरे यह अवस्था भी बहुत कुछ सह्य हो चली। मैं बीच बीच में अपने भाग्य की समालोचना कर के मन को शान्ति देने की चेष्टा करता था और अपनी वर्तमान अवस्था के सुख-दु:ख की गणना कर के मन को धैर्य देता था। इस प्रकार मैं अपने भाग्य के भला-बुरा कह कर मन को समझाता था।


अच्छा
मैं जीता हूँ अपने सा-
थियों की तरह डूब कर
नहीं मरा।


बुरा
मैं निर्जन टापू में आ
फँसा हूँ, यहाँ से मेरा उद्धार
होने की अब आशा नहीं।