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भग्न जहाज़ का पुनर्दर्शन।


मैंने समझा कि यह भूकम्प का ही काम है। भूकम्प के कारण जहाज़ और भी टूट फाट गया था। इससे उसकी कितनी ही वस्तुएँ ज्वार के समय उपला उपला कर किनारे आने लगीँ।

इस नूतन घटना ने मेरे रहने के लिए जगह चुनने का संकल्प एक रूप से भुला दिया। अब मैं इस फ़िक्र में लगा कि जहाज़ के भीतर किसी तरह घुस सकता हूँ या नहीं। जहाज़ के भीतर बालू भर गई थी, इससे भीतर घुसने की आशा एक तरह क्षीण सी होगई थी, किन्तु मैंने हताश न होकर एक युक्ति सेची। युक्ति यही कि यदि जहाज़ के भीतर न जा सकूँगा तो उसके टुकड़े टुकड़े करके ऊपर ले जाऊँगा। कारण यह कि मुझे जो कुछ भी मिल जाता था वही कभी न कभी मेरे किसी न किसी काम में आ जाता था।

मैंने कुल्हाड़ी से एक डेक की कड़ी को काट डाला और उस पर से, जहाँ तक हो सका, बालू को निकाल फेंका। किन्तु ज्वार आते देख मुझे इस काम से निवृत्त होना पड़ा।

४ मई--मैं मछली पकड़ने गया, किन्तु खाने योग्य एक भी मछली न पकड़ सका। जब मैं मछली का शिकार ख़तम कर चलने पर हुआ तब मैंने एक छोटी सी डौलफ़िन (एक प्रकार की सामुद्रिक मछली) पकड़ी। मैंने सूत की रस्सी से डोरा निकाल कर मछली पकड़ने की तग्गी बना ली थी, किन्तु मेरे पास बनसी न थी। तो भी मैं अपने खाने भर को यथेष्ट मछली पकड़ लेता था। मैं मछलियों को धूप में सुखा कर रख छोड़ता था और सूखी मछलियाँ ही खाता था।

पाँचवीं मई से पन्द्रहवीं जून तक--खाने और सोने आदि का आवश्यक समय छोड़ कर जो समय बचता था