१०२ रामचन्द्रिका सटीक। विराज कीरति राजै जनु केशव तपबलकी । तनबलितप- |लित जनु सकल वासना निकरिगई थलथलकी। कांपति शुभग्रीवा सब अंग सीवा देखत चित्त भुलाही । जनु अपने मन प्रति यह उपदेशति या जगमें कछु नाहीं ६ प्रमिताक्षरा छंद ॥ हरवाइ जाइ सिय पॉयपरी । ऋषिनारि सृधि शिर गोद धरी ।। बहुभग राग अग अगरये । बहुभांति ताहि उपदेश दये ७ सृग्विणीचंद ॥ राम आगे चले मध्य सीता चली। बधु पाछे भये सामसोमे भली ॥ देखि देही सबै कोटिधाके भनो । जीव जीवेश के बीच माया मनों ॥ १ भज्यो कह प्राप्त भये २ मनको शोधि शोधि शुद्ध करि करि गुनकी जो उर विषे धरयो है अर्थ तुम्हारो ध्यान करथा है अथवा मनहीको शुद्ध कारकै जो उरमें धारण करयो अर्थ मन की जो चचलता है ताहि छोड़ाई अपने वश्य करयो है सो हे रामचन्द्र ! ताको सब को फल जो तुम्हारो दर्शन है ताको पायो ३ । ४ जरा कहे बुढ़ाईरूपी जो सखी है साके साथ देख्यो ५ तन चलित्त कहे युक्त है पलित कहे हिलाईसों अर्थ दृद्धता सों त्वचामें सिकरा परिगये हैं सो मानों थलथलकी अंग अंगकी | वासना विषयवासना निकलगई है ताहीतेश्रग सिकुरिगये हैं सीवा मर्यादा हरवाइ कहे हरबराइ के ७ भनो कया जीवेश ईश्वर ॥ मालतीछंद ॥ विपिन विराध बलिष्ठ देखियो । नृपतनया भयभीत लेखियो । तब रघुनाथ बाणके हयो । निज निर्वाण पथको ठयो दोहा । रघुनायक शायक घरे सकल- लोक शिरमौर ॥ गये कृपाकरि भक्विवश ऋषि अगस्त्य के ठौर १० वसंततिलकाचंद ॥ श्रीराम लक्ष्मण अगस्त्य,स. नारि देख्यो । स्वाहाममेत शुभ पावकरूप लेख्यो । साष्टांग क्षिपअभिवदन जाह कीन्हो । सानद आशिप अशेप ऋषीश दीन्हो ११ बैठारि भासन सबै अभिलाप पूजेतीतासमेत
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