रामचन्द्रिका सटीक । (हैं तिनको नाम कहा ना लीजै अर्थ की लीजै ताही के नामसों मुक्ति प्राप्ति होति है मैं तुम्हारो सदा दासहौं मोपै कृपा काहे नाही कीजत सेवकपर कपा करियो स्वामीको उचित है अदेवीन की रानी होहु इत्यादि पचन आशीर्वादात्मक हैं कि तुम ऐसे सुखको मात हाहु ५६ । ६०।६१॥ मालिनीछंद ।। तृण बिच दै बोली सीय गंभीर बानी। दशमुख शठ को तू कौनकी राजधानी॥ दशरथसुतदेषी रुद्र ब्रह्मान भासे । निशिचर बपुरा तू क्यों नश्यो मूल नासै ६२ अतितनु धनुरेखा नेक नाकी न जाकी । खल शरखर- धारा क्यों सहे तिच्छताकी ॥ विडकनधनघूरे भक्षि क्यों बाज जीवे । शिवशिरशशिश्रीको राहु कैसे सो बीवै ६३ ।। पतिव्रतनको परपुरुषसों संभाषण अनुचित है तासों तृण कहे खरको अंतर करचो यह लोक मर्यादा है अथवा तण अंतर में करि या जनायो कि हम प्राणको तृणसमान समुझे हैं जो तू स्पर्श करिहै तो माण तृण- समान छोडिदे अथवा रावणको जनायो कि तू तृणसमान है काहे ते | गंभीर पाणी बोली याते कळू भय नहीं सूचित होत कोऊ कोऊ तण अंच लहूको कहत हैं तो अचल ओट सों बोली या जानौ तेरो तो मूल तबहीं नशिगयो रहै जब हमको हरिल्यायो रहै वामें कछू लग्यो है वाको अयशी बाते कहि अब नीकी भातिसों काहेको नाशत है ६२ तनु कहे मूक्ष्म विद् पुरीप तेरो राज्यसुख विडकनसदृश है हम बाजसदृश हैं औ हम शिवशिर- शशिसदृश हैं तू राहुसदृश है ६३ ॥ उठि उठि शठ ह्यांते भागु तौलौ अभागे । मम वचनवि- सी सर्प जौलौन लागे ॥ विकल सकुल देखौं आशुही नाश तेरो । निपट मृतक तोको रोष मारै न मेरो ६४ दोहा ॥ अवधि दई दैमासकी कह्यो राकसिन बोलि ॥ज्यों समुझे समुझाइयो युक्ति बुरीसों छोलि १५ चामरछद ॥ देखि देखिकै अशोक राजपुत्रिका कह्यो । देहि मोहिं पागि तें जो अग आगि कैरह्यो। ठौर पाई पौनपुत्र डारिमुद्रिका
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