रामचन्द्रिका सटीका १३७ दडी जटी मुंडधारी ५६ तुम्हें देवि दू हितू ताहि मानें। उदा- सीन तोसों सदा ताहि जानैं ॥ महानिर्गुणी नाम ताको न लीजै । सदा दास मोपै कृपा क्यों न कीजै ६० अदेवी नृदेवीन की होहुरानी । करैं सेव बानी मघोनी मृडानी॥लिये कि- नरी किन्नरी गीत गावें। सुकेशीनचें उर्वशी मान पा ६१ ॥ कृत जो कर्म हैं ताके हता नाशकर्ता हैं अर्थ शुभाशुभ कर्मबधन तोरि दासन को मुक्त करत हैं औ कु जो पृथ्वी है ताके दाता हैं अर्थ पूर्णपृथ्वी | के दाता हैं भावनरूप है बलिसों ले इंद्रको दियो औ कु जो पृथ्वी है ताकी कन्या जे तुम हौ तिन्हें चाहत हैं औ नग्न नौ मुंडी जे तपस्वी हैं तिनके हितू हैं श्री अनाथ कहे जिनको नाथ स्वामी कोज नहीं है आशय कि पापही सबके नाथ हैं अनाथ कहे अशरण जे मानी हैं तिनके भनुः | सारी अनुगामी हैं जाको रक्षक कोई नहीं है ताकी रक्षा करिवेको पाछे पाछे आपु फिरत है जैसे गज प्रहलाद की रक्षा करखो औ दडी औ जटी [ो मुडधारी जे तपस्वी हैं तिनके चित्तमें बसत हैं अर्थ राजाको सदा ध्यान करत हैं अथवा दडी औ जटी श्री मुंडधारी ऐसे जे महादेव हैं तिन के चित्त में बसत हैं औ द्रव्यरूप लक्ष्मीको जे दूपत हैं श्री उदासीन रहत है ते दास विष्णुको प्रति मिय हैं औ निर्गुणी कहे प्राकृतगुणन करि रहित हैं अर्थ प्रतिउत्कृष्ट गुण हैं जिनके । यथा वायुपुराणे " सत्त्वादिगुणहीन त्वानिर्गुणो हरिरीश्वरः ” औ ता नाम को ताको नाम ऐसी है जा करिके नहीं लीजियत अर्थ जाके नामको शिव आदि देव सब अपत है अथवा महानिर्गुणी कहे रज सत्व तमोगुण करि रहित है भी ताको नाम नहीं लीजियत है अर्थ जाके नाम का जप नहीं है ऐसी जो ब्रह्मज्योति है सो है अथवा हे देवि ! जे तुम्हें दूषत हैं तिनमें कहा हितू मानत है अर्थ हितू नहीं मानत जो मुम्हारो रंच रूज विरोधी है ताहि रामचन्द्र परम वि रोधी मानत हैं जयंतादि ते जानों भी तोसों उदासीन है ताहूको कहा हितू मानत हैं अर्थ ताहूको आपनो परम हितू होइ पै विरोधीही जानत हैं सीय खोजको पानर पठाइये में सुग्रीव उदासीनता करयो प्रेमकरि प्रापुही सोपानरन पठायो तप कोपरि लक्ष्मण सो विरोधीसम वचन कहि पठा बनादि सो जाना औ महानिर्गुणी कहे उत्कटगुणन करि युक्त जे रामचन्द्र
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