पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४५ रामचन्द्रिका सटीक । भूलत हैं कुलधर्म सबै तबहीं जनहीं बरु पानि सजू । केशव वेद पुराणनको न सुने समुझेन त्रसै न हँसैजू॥देवनि ते नरदेवनितेनरते वरवानर ज्यों विलसैजू । यत्र न मत्रन मरि गने जग यौवन कामपिशाच बसैजू १० ज्ञान बिके तन त्राननिको कहि फूलके बाणनि बेधवकोतो । बाइ लगाइ विवेकनको बहुशोधक को कहि बाधक जोतो ॥ औरको केशव लूटतो जन्म अनेकनके तपसानको यो तो। तो मम लोक सबै जग जातो जो काम बड़ो बटपार न होतो ११ ॥ याम यौवनकृत दुःख कहत हैं वेदपुराणनको मथम तौ सुनत नहीं औ सुनत हैं तो समुझत नहीं औ समुझत हैं तौ त्रसत कहे डरत नहीं औ वेदवचनहींकी निंदा करि सित है वानरसम विलसत कति यो जनायो कि पशुसम वुद्धि है जाति है १० या कामव्यवहारका पीड़ा कहत हैं साधक प्राणायामादि एतो कहे जहाज पचीसयें प्रकाशमें यकवालिस दोहामो रामचन्द्र कह्यो है " मोहिं न हुतो जनाइवे सही जान्यो आज यासों या जानौ रामचन्द्र ईश्वरत्वको छिपाये रहे हैं औ यामें मम लोक सबै जगजातो या उक्लिसों ईश्वरत्व प्रकट होत है वहां कविको भ्रम जानब अथवा तो ममलोक कहे ममताविशिष्ट जे लोक मर्त्यलोकादि हैं तिनसों 'सबै जग कहे सब जगत्के जीव आपने स्थानको प्रश्नपदका इति शेषः जातो प्राप्त होतो ११॥ मकरंदविजयाछद ॥ कम्पै वरबानी गै उर डीठि तुचाति- कुचै सकु. मति बेली । नवै नवग्रीव थकै गति केशव बालक ते सॅगही सँग खेली। लिये सब प्राधिन व्याधिन संगजरा जब श्रावै ज्वराकि सहेली। भागै सब देहदशा जिय साथ रहै दुरि दौरि बुराशा अकेली १२॥ या वृद्धताको व्यवहार कहत हैं पुनादिके कटुवचनादि सो जनित, जो आधि कहे मानसीन्य ग औ व्याी शरीरव्यथा ज्वरादि तिनके संगमें लिये ज्वरा जो मृत्यु है नारी सहेली सखी जो जरा दता है सो जब $