रामचन्द्रिका सटीक । देहमें श्रावति है तब ताके उरसों वाणी कांप लागति है अर्थ मुखसों व्यक्त वचन नहीं कढ़न औ डीठि डगै कहे टगमगाति है औ त्वचा कहे चर्म अति कुचै बहुत सिकुरि जाति है औ मति जिपी जो वेली लता है सो सकुचै कहे संकोचको प्राप्त होति है अर्थ बुद्धिहीन होति जाति है औ नव कहे नवीन प्रकार सों ग्रीवा नवै कहे नत होति है नवपद यासों कह्यो कि और जो कोऊ काहू को नवत है अर्थ प्रणाम करत है सो नयोई नहीं रहत ग्रीवा जबसों नवति है तबसी नईही रहति है उठतिही नहीं अथवा भयंसों अनित्यको छोड़ि नत होति है औ जो जीवके संगही संगमें वालकही से | खेली है सो गति गमन जीवकी सहाय छोड़ि जरा के भयसो थकि रहति है औ देहकी जो दशा कहे शुभ दशा है सुंदरतादि सो सब भागति है जियके साथमें दुरिकै केवल दुराशा कहे दुष्ट आशा रहि जाति है वृद्धता में इनकी सबको सुभावहीसों यह होति है तामें जरा के भयको तर्क है तासों असिद्धविषय हेतूत्भेक्षा है यह वस्तु हमको इते दिनमें मिलि है ऐसी जो बुद्धि है सो दुराशा कहावति है १२ ।। विलोकि शिरोरुह श्वेत समेत तनोरुहके सवको गुण गायो । उठे किधों आपुके औधिके अंकुर शूल कि शुष्क समूल नशायो । जरे किधों केशव व्याधिनकी किधौं श्राधि के आखर अंत न पायो । जरा शरपंजर जीव जो कि जराजर कंबरसो पहिरायो १३ मनोहरविजयाछंद । दिनही दिन बाढ़त जाइ हिये जरिजाइ समूल सो औषधि खैहै । किधों याहिके साथ अनाथ ज्यों केशव पावत जात सदा दुख सैहै | जग जाकी तु ज्योति जगै जड़ जीवन पाये तु तापहँ जानन पैहै । सुनि बालदशा गइ ज्वानी गई जरि- जैहै जराऊ दुराशा न जैहै १४ ॥ या प्रसंगवश वृद्धता को वर्णन है तनोरुह कहे तनके रोम तिन सहित शिरोरुह शिरके बारन को श्वेत विलोकिकै याप्रकार सों गुण गायो है कि आयुर्बल की अवधि मर्यादा जो पाई है ताके अंकुर उठे हैं औ कि शूल नाम आयुध विशेष है शूलहू लगे शुष्क समूल कहे पूर्ण नाशको प्राप्त
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