२५५ रामचन्द्रिका सटीक । दोहा॥ ताकी इच्छाते भये नारायण मतिनिष्ठ ॥ तिनते चतुरानन भये तिनते जगत प्रतिष्ठ ८ दोधकछंद ॥जीव सवै अवलोकि दुखारे । 'आपने चित्त प्रयोग विचारे ॥ मोहिं सुनाये तुम्हें ते सुनाऊं । जीवउधारण गीत गुनाऊं : दोहा॥ मुक्तिपुरी दरबारके चारि चतुर प्रतिहार । साधुनको सतसंग सम अरु संतोष विचार १० यह जग चक्रव्यूह किय कजलकलित अगाधु ॥ तामहँ पैठि जो नीकसै अकलंकित सो साधु ११ ॥ ज्योति ब्रह्मज्योति ७ । ८ तिन चतुरानन जगत् के जीवन को संसार में दुखार देखिकै अपने चित्त में तिन जीवन के उद्धार को प्रयोग कहे यत्न विचारयो सो सब हमको मुनायो है सो तुमको सुनाइयत है ६ । १० यामें साधुको लक्षण कहत हैं जैसे कज्जलकलित चक्रव्यूह में शपथार्थ पैठिकै अकलंकित कहे कन्जलचिह्नरहित निकसे सो साधु कहे दोपरहित होत है तैसे कज्जलसम दोपयुक्त जो संसार है तामें पैठि अकलंकित कहे अदोप निकसै सो प्राणी साधु है ११ ॥ दोधकछंद ॥ देखतहूं एक काल लियेहूं। बात कहै सुनै भोग कियेहूं ॥ सोवत जागत नेक नक्षोभै । सो समता सव ही महँ शोभै १२ जो अभिलाष न काहूको आवै।आये गये सुख दुःख न पावै ॥ ले परमानंदसों मन लावै । सो सव मांझ संतोष कहावै १३ अायो कहां अब हौं कहि कोहौं। ज्यों अपनो पद पाऊं सो टोही॥बंधु अबंधु हिये महँ जाने। तांकहँ लोग विचार बखानै १४ ॥ यामें समता को लक्षण कहत हैं संसार को जो सक् चंदन वनितादि विषय भोग है ताको देखतहूं औ छुयेहूं औ ताही की बात कहै औ सुनै औ भोगहू करै परंतु सोवत औ जागत नेकह तामें क्षोभै नहीं अर्थ लीन न होय औ सवही में कहे अग्निजलादि में समता शोभै सोई समता है १२
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