३२४ रामचन्द्रिका सटीक । औ अरुंधती सहित वशिष्ठ सब निमंत्रण में गये हैं यह कथा उत्तरराम- चरित नाटक में लिखी है सो जानौ ४७ ॥ पार भये जवहीं जन दोऊ। भीमबनी जनु जंतुन कोऊ ।। निर्जल निर्जन कानन देख्यो । भूतपिशाचन को घर लेख्यो ४८ सीताजू-नगस्वरूपिणीचंद ॥ सुनों न ज्ञान का- रिका । शुकी पढ़ें न सारिका ॥ न होमधूम देखिये । सुगंध बंधु लेखिये ४६ सुनों न वेदकी गिरा । न बुद्धि होति है थिरा ॥ ऋषीनकी कुटी कहां। पतिव्रता बसैं जहां ५० मिले न कोउ वे कहूं । न अावले न जातहूं॥चले हमैं कहां लिये। ड्यरातिहैं महा हिये ५१ दोहा। सुनि सुनि लक्ष्मण भीत अति सीताजूके बैन ॥ उत्तर सुख प्रायो नहीं जल भरि आये नैन ५२ नाराचछंद ॥ विलोकि लक्ष्मणै भई विदेहजा विदेहसी । गिरी अचेत है मनो धनै बने तडीतसी ॥ कसो जु छांह एकहाथ एकबात वाससों। सिंच्यो शरीर वीर नैन नीरही प्रकाससों ५३॥ जन कहे मनुष्य जंतु कहे जीव अर्थ मनुष्य जीव केवल वनजीवही देखि परत हैं इति भावार्थः ४८ सुगंधको बंधु कहे हित अर्थ सुगंधयुक्त होम धूम नहीं देखियत अथवा सुगंधवंधु कहे दुर्गंध कहूं सुगंधबंध पाठ है तहां अर्थ सुगंध को बंध कहे बंधन है या ऐसो होम धूम नहीं देखि- यत ४६ । ५० । ५१ । ५२ मानों घनैननै कहे घन वनको देखि तड़ित जो विजुरी है सोई वसी कहे डरी है सोडरिकै अचेत? गिरिपरी है.इत्यर्थः | कहूं घने बने तड़ी त्रसी पाठहै अर्थ मानो घने जे धन मेघ हैं तिनमें त्रसी कहे डरानी तड़ी अचेतद्वै गिरी है मेघसम वनहै बिजुरीसम सीता हैं ५३॥ रूपमालाछंद ॥ रामकी जपसिद्धिसी सियको चले वन छाडि । छांह एक फनीकरीफनदीहमालनि मांडि ॥ बाल- मीकि विलोकियो वनदेवता जनु जानि । कल्पवृक्षलता
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