पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३५३

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रामचन्द्रिका सटीक। ३५७ कवित " कैधौं शुभ सागर विराजमान जामें पैठि पाइयत परमपदारथ की रासिको। कंठ में करत शोभ धरत सभा के मध्य कैधौं सोहै माल उर विमल जासिका ॥ सेवतही जाको लहै सुमन प्रवीणनाई जानकी- प्रसाद कैधौं भारती हुलासिका । ज्ञानकी प्रकाशिका मुकुतिपदकासिका है सेइये सुजन गमभगतिप्रकाशिका १ दोहा ॥ रामभक्ति उर आनिकै राम- भक्तजन हेतु । रामचंद्रिकासिंधु में रच्यो तिलकको सेतु २ जो सुपंथ तजि सेतु, को चलहि और मग जोर । रामचन्द्रिकासिंधु को लहहि कौन विधि ओर ३॥" कवित्त ॥ तूरयो शम्भुधनु भृगुनाथ को गरब चूस्यो ऊत्यो निज राज पूखो पितु को परन है । वन वरवास कीन्हें निशिचर नास कीन्हें रविसुत आस कीन्हें श्रावत शरन है। कपिकर लंक जारयो पारयो सेतु सिंधु- मह मारयो दशशीश बंधु धारयो नृपधन है। ख्यालसम कीन्हें जिन अदभुत काम बंदियत अभिराम नृप राम के चरन है १॥ इति श्रीरामचन्द्रिका सटीका समाप्ता