रामचन्द्रिका सटीक । अवनीपनके अवनीप पृथुसम केशवदास दास दिज गाय के ॥ आनँद के कंद सुरपालक से बालक ये परदारप्रिय साधु मन बच कायके । देह धर्मवारी पै विदेहराजजू से राज राजत कुमार ऐसे दशरथरायके ३२ ॥ ३०।३१ या विरोधाभास है दानी जे हरिश्चन्द्रादि राजाहैं तिनके ऐसे शील स्वभाव हैं जिनके अपर जे शत्रु हैं तिनसों दान दंडके प्रहारी लेवैया हैं श्रौ दिनप्रति दानवारि विष्णुके जैसे मुभाय हैं ऐसे सुभायनके निदान कहे आदि कारण हैं अर्थ विष्णु के ऐसे सौंदर्यादि सुभायनको प्रकट करत हैं औ दीपक हैं प्रकाश कहँ दीपकहूके अर्थ अति कान्तियुक्त हैं श्री अव- पनके अवनीप राजा हैं अथवा दीप दीपके अवनीपनके अवनीप राजा हैं अर्थ सालोदीपनके राजनके राजा हैं औ राजा पृथुके समान हैं औ गो ब्राह्मण के दासहैं तौ एने बड़े राजाको अतिदीन गोब्राह्मणकी सेवा विरोध है अविरोध यह गोब्राह्मणकी सेवा क्षत्रीको उचित है परदार लक्ष्मी अथवा पृथ्वी विदेहराज काम अथवा जन व राजाजनक को संबोधन है दानवारि सम सुभाव कहि श्री लक्ष्मीप्रिय कहि जनकको जनायो कि ये विष्णु अवतार हैं अथवा ऐसे जे दशरथराय हैं तिनके ये कुमार राजत हैं सुरपाल कैसे हैं बालकही ते ये दशरथराय जिनको वर्णन करियत हैं ३२ ॥ सोरठा । जबते बैठे राज राजादशरथ भूमिमें || सुख सोयो सुरराज तादिनते सुरलोकमें ३३ स्वागताछंद ॥ राजराज दशरत्थतनैजू । रामचंद्र भुवचंद्र बनैजू ॥ त्यों विदेह तुमहूं अरु सीता। ज्यों चकोरतनया शुभगीता ३४ तारकछंद ॥ रघुनाथ शरासन चाहत देख्यो । अतिदुष्कर राजसमाजनि लेख्यो । जनक || ऋषिहे वह मन्दिर मांझ मँगाऊं । गहि ल्यावहिं हौं जनयूथ बुलाऊं३५ पद्धटिकाछंद। अब लोग कहाकरिवे अपार । ऋषिराज कही यह बारबार । इन राजकुमारहि देहु जान । सब जानतहैं बलके निधान ३६ जनक-दंडक ॥ वज्रते कठोर है कैलासते विशाल
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