पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/९०

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८६ रामचन्द्रिका सटीक। रहे यामें त्रिकालदर्शी जे रामचन्द्र हैं तिन अपने वियोगसों पिताको मरण निश्चय करि पतिव्रत को धर्म सुनाय माताको बोधकारि युक्तसो विधवा स्त्रीको उचित धर्म सिखायो १६ ॥ खाय मधुरान नहिं पायँ पनहीं धरै। काय मन वाच सब धर्म करिबो करें ॥ कृच्छ उपवास सब इंद्रियनि जीतहीं। पुत्र सिखलीन तन जौलगिअतीतही २० दोहा॥पति हित पितुपर तन तज्यो सती साखिदै देव ॥ लोकलोक पूजित भई तुलसी पतिकी सेव २१ मनसा वाचा कर्मणा हमसों छांडो नेहु ॥ राजाको विपदा परी तुम तिनकी सुधिलेहु२२ पद्धटिकाछद ॥ उठि रामचन्द्र लक्ष्मण समेत । तब गये जन नकतनयानिकेत ।। सुन राजपुत्रि के एक बात । हम वन पठये हैं नृपति तात २३ तुम जननिसेवकह रहहु वाम । के जाहु भाजुही जनकधाम ॥ सुनि चन्द्रवदनि गजगमनि ऐनि । मन रुचै सो कीजै जलजनैनि २४ सीताजू-नाराच- छंद ॥ न हो रहौं न जाहुँजू विदेहधामको अनै। कही जो बात मातु पै सो भाजु मैं सुनी सबै । लगैक्षुधाहि मा भली विपत्ति मांझ नारिये । पियास त्रास नीर वीर युद्ध में सम्हारिये २५॥ २० सती की श्री तुलसी की कथा प्रसिद्ध है २१ । २२ । २३ जनानि | कौशल्या ऐनि कड़े है सुंदरि । २४ कि स्त्री को पतिही की सेवा उचित है यह बात जो माता सौ तुम कहो है सो हम सर्व सुन्यों है यासों या जनायो कि तुम्हारा सेवा लोडि हम कैसे घर में रह क्षुधा में मारा भली | लगति है पोपण करिवा मुख्य माता को है तासौं । प्रथा कविप्रियाया माता जिमि पोपति पिता जिमि पनिपाल फरे' भी विपत्ति में नारिये कहे स्त्री ही भली लागात है जा भोक प्रकार सो शुश्रुषा करि मनको पहरावनि है भो पियास की त्रास समय नीर भलो लागत है औ युद्धम