पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०१८

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२४३ पष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । के दसों मानकों में सौ सौ वाण पारे, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों पर्वत के शिखरों में साँप घुस रहे हैं सत सर पुनि मारा उर माहीं । परेउ अवनितल सुधि कछु नाहीं ॥ उठा प्रबल पुनि मुरछा जागी। छाडिसि ब्रह्म दोन्हि जो साँगीं ॥४॥ फिर सौ वाण उसकी छाती में मारा, धरती पर गिर पड़ा कुछ होश नहीं रह गया। फिर यह महा वली राक्षस सूर्या से जाग कर उठा और प्रक्षाने जो उसे साँगी दी थी, वह चलाया ॥४॥ हरिगीतिका-झून्द । से ब्रह्म-दत्त प्रचंड सक्ति अनन्त उर लागी सही। परयो बीर विकल उठाव दसमुख, अतुल बल महिमा रही। ब्रह्मांड-भुवन निराज जाके एक सिर जिमि रज-कनी। तेहि वह उठावन मूढ़ राजन, जान नहिँ त्रिभुवन-धनी ॥६॥ यह मा की दी हुई तीन शकि ठीक लक्षमणजी की छाती में जा लगी। वीरलक्ष्मण विकल हो गये, जिस रावण के भुजाओं के पल को अप्रमेय महिमा थी, वह उठाने लगा। जिनके एक मस्तक पर भूमण्डल-लोक जैसे धूल के फिनके की तरह विराजता है। उनको मूर्ख रावण उठाना चाहता है, यह नहीं जानता कि ये तीनों लोकों के स्वामी हैं ॥8 अतुल पसवान रावण के उठाने से उठना जिनके एक मस्तक पर सारा प्रहाण्ड रज-कण के समान विराजता है। इस कथन में रावण और ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध से लक्ष्मणजी की गुरुता और हेमा वर्णन में अतिशयोक्ति की गई है, यह 'सम्बन्धातिशयोक्ति अलंकार' है। दे०-देखि पवन-सुत धायेउ, बोलत बचन कठोर । आवत कपिहि हनेड तेहि, मुष्टि-अहार प्रचार ॥८॥ यह देख कर कठोर वचन कहते हुए पवनकुमार दौड़े। हनूमानजी को पाते ही उसने बड़े जोर से घुसा मारा REAM चौ०-जानु टेकि कषि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा है मुठिका एक ताहि कपि भारा । परेउसैल जनु बज्न प्रहारा ॥९॥ हनुमानजी धरती पर गिरे नहीं घुटने टेक कर संभल गये और अत्यन्त कोध में भरकर उठे। पवनकुमार ने उसको एक बूंसा मारा, वह ऐसा मालूम हुआ मानों पर्वत पर वन की चोट पड़ी हो ॥१॥