पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०१९

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रामचरितमानस मुरछा गई बहोरि से जागा । कपि बल बिपुल सराहन लागा। धिग धिग सम्म पौरुषधिग सोही । जाँ से जियत उठेसि सुर द्रोही ॥२॥ मूर्छा जाती रही, फिर वह जगा और हनुमानजी के बल की बड़ी घड़ाई करने लगा। पवनकुमार ने कहा-श्ररे सुर द्रोही । यदि तू मेरे मारने पर भी जीता, उठ गया तो मुझको धिकार है और मेरे पुरुषार्थ को धिक्कार है ! धिक्कार है ! चोट से दुखी हो कर शत्र, बड़ाई करता है, वह अनुचित और अयथार्थ होने से रसाभास है। क्योंकि वह प्रत्यक्ष में कपि की प्रशंसा के बहाने अपने पुरुषार्थ की बड़ाई असकहि लछिमन कहँ कपि ल्यायो । देखि दसानन विसमय पायो । कह रघुबीर सबु जिय माता । तुम्ह कृतान्त भच्छक सुरत्राता ॥३॥ ऐसा कह कर हनुमानजी लक्ष्मणजी को उठा लाये, देख कर रावण को आश्चर्य प्राप्त हुना (कि या विधाता ! इस बन्दर में कितना यल है ? ) । रघुनाथजी ने कहा है भाई ! अपने मन में समका, तुम काल के भक्षक और देवताओं की रक्षा करनेघाले हो उठो) ॥३॥ सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सा सक्ति ‘कराला ॥ पुनि कादंड थान गहि धाये। रिपु सनमुख अति आतुर आये॥४॥ ॥ कृपालु रामचन्द्रजी के वचन सुनते ही लक्ष्मणजी उठ कर बैठ गये और वह विकराल शक्ति श्राकाश को चली गई। फिर धनुष धाण ले कर दौड़े और बहुत जल्दी शत्रु रावण के सामने आये ॥ प्रथम बार लक्ष्मणजी के शक्ति लगी तप बहुत बड़ा आयोजन कर सचेत होना कहा गया और इस बार केवल रामचन्द्रजी के कह देने से मूळ रहित हुप, इसका क्या कारण है ? उत्तर--पहली बार मनुष्यलीला दिखाने क्षा और इस बार ईश्वरत्व दर्शाने का अभिधाय है। हरिगीतिका-छन्द । आतुर बहारि बिभाजि स्यन्दन, सूत हति व्याकुल किया। गिरयो धनि दसकल्धार बिकलतर, बान सत बेध्यो : हियो । सारथी दूसर धालि रथ तेहि, तुरत लङ्का ', लेइ गयो । रघुबीर बन्धु प्रतापपुज बहारि, प्रभु चरनन्हि नयो ॥१०॥ तब शीघ्र ही उन्हा ने रथ चूर चूर कर के सारथी को मार व्याकुल कर दिया । रावण के एदय को सौ वाणा से बेध दिया। जिस से वह अत्यन्त विकल होकर धरती परगिर पड़ा।