पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०२९

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५४ रामचिरत-मानस । । त्रसे। हरिगीतिका-छन्द । भये क्रुद्ध जुह बिरुद्ध रघुपति, त्रोन सायक कसमसे। कोदंड-धुनि अति-चंड सुनि मनुजाद भय मारुत ग्रसे ॥ मन्दोदरी-उर-करूप कम्पति,-कमठ-भू-भूधर विकहिँ दिग्गज दसन गहि महि, देखि कौतुक सुर हँसे. ॥१७॥ रघुनाथजी वैरभाव से युद्ध में क्रोधित हुप, उनके तरकस के वाण हिलने डोलने लगे। धनुष की अत्यन्त भोषण ध्वनि को सुन कर राक्षस भय के वायु से ग्रस गये। मन्दोदरी का हृदय काँगने लगा, समुद्र, कच्छप. पृथ्वी और पर्वत त्रस्त हुए । दिशाओं के हाथो दाँत से धरती को पकड़ कर चिरघाइते हैं य" तमाशा देख कर देवतागण हंस रहे हैं ॥१७॥ दो-ताने उ चाप लवन लगि, छड़े बिसिख कराल । राम मारगन-गन चले, लहलहाल जनु ब्याल ॥१॥ क्षात पर्यन्त धनुष तान कर विकरात वाण छोड़े। रामचन्द्रजी के समूह वाण चले, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो लहलहाते हुए साँप जा रहे हो ॥ १ ॥ चौख-चले बान सपच्छे जनु उरगा। प्रथमहि हतेउ सारथी तुरगा ॥ स्थ बिजि हति केतु पताका । गरजा अति अन्तरबल थाका ॥१॥ वाण चले, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो पक्षधर साँप है। पहले सारथी और घोड़ों का नाश किया। रथ चूर चूर कर फे झण्डी और झण्डों को काट गिराया, तब रावण के अन्तःकरण, का बल थक गया और वह बड़े जोर से गर्जा ॥ १ ॥ तुरत आन रथ चढ़ि खिखि आना । अस्त्र सत्र छाड़ेसि विधि नाना । बिफल होहि सब उद्यम ता के । जिमि पर-द्रोह-निरत-मनसा के ॥२॥ तुरन्त दूसरे रथ पर चढ़ कर क्रोध से भरा हुआ नाना तरह के अस्त्र शख मारने लगा। उसके समस्त उद्योग कैसे विफल हो रहे हैं, जैसे पराये के नोह में तत्पर प्राणी की मनशा निष्फल होती है ॥२॥ तब रावन दस सूल चलावा । बाजि चारि महि मारि गिरावा ॥ तुरग उठाइ कोपि · रघुनायक । बैंचि सरासन छाड़े सायक ॥३॥ तवं रावण ने दस त्रिशूल चलाया, उससे चारों घोड़ों को मार कर जमीन पर गिरा दिया। तुरन्त घोड़ों को उठा कर रघुनाथजी ने क्रोधित हो धनुष तान कर बाण छाड़े ॥३॥ रावन सिर-सरोज-बन-चारी । चलि रंघुधीर सिलीमुख धारी ॥ दस दस बान माल दस मारे। निसरि गये चले रुधिर पनारे ॥४॥ रावण के मस्तक रूपी कमल-वन में विचरनेवाले रघुनाथजी के पास रूपी भ्रम के .