पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०२८

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षष्ट सोपान, लङ्काकाण्ड । हैं, (पर करते नहीं) एक कहते हैं और उसे करते हैं, अन्य तीसरे-करते हैं, पर ये वाणी से कहते नहीं ॥१॥ पहले गुलाब, आम और कटहर का नाम ले कर फिर उसी क्रम से केवल फूल देनेवाला फूल फल देनेवाला और क्षेवल फल देनेवाला 'यथासंख्य अलंकार है। क्योंकि गुलाब में कुल माता है पर फल नहीं लगता, श्राम में फूल-फल दोनों होते हैं और कटहर में फूल नहीं, बाली फल लगता है। वैसे ही एक कहते भर हैं, दूसरे कह कर करते हैं और तीसरे कहते नहीं कर के दिखाते हैं । इस में गूढ़ अभिप्राय रावण को व्यर्थ क्षकवाद से घिरत हो शूरता प्रदर्शित करने की जमा देने का भाव 'गूढ़ोत्तर अलंकार है। दो०-राम बचन सुलि बिहंसा, माहि सिखावत ज्ञान । बयर करत नाह तम डरे, अन्न लागे प्रिय भान 100 रामचन्द्रजी की बात सुन कर रावण हँसा और कहने लगा फितू मुझे मान लिलाता धेर करते हुए तय नहीं डरा अब प्राण प्यारा लग रहा है ? ॥६॥ रामचन्द्रजी की अपेक्षा विद्या और बल में रावण का अपने में अधिकत्व मानना गर्व सारी भाव' है। चो०-कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकन्धर । कुलिस समान लाग छाड्छ सर । नानाकार लिलीमुख धाये। दिखि अरु विदिसिं गगन महि छाये ॥१॥ दुर्वाक्य फह कर झोधित हो रावण बन्न के समान वाण छोड़ने लगा ! अनेक ग्राकार वाले वाण दौड़े, वे दिशा-विदिशा, आकाश और पृथ्वी में छा गये ॥१॥ पावक-सर छाड़े रघुबीरा । छन सहँ जरे निसाचर तीरा ॥ छाड़ेसि तीन सक्ति खिलियाई । बान सङ्ग प्रनु फेरि पठाई ॥२॥ रघुनाथजी ने अग्नि-वाण छोड़े, जिससे क्षणमात्र में राक्षस के तोर जल गये। वर खिसिया करतीक्षण साँगी चलाया, प्रभु रामचन्द्रजी ने बाण के साथ उसे लौटा कर भेज दिया ॥२॥ कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारइ । बिनु प्रयास प्रभु कादि निवारइ । निफल होहि रावन सर कैसे। खल के सकल मनोरथ जैसे ॥३॥ करोड़ों चक्र और त्रिशूल फेकता है, प्रभु रामचन्द्रजी यिना परिश्रम ही उन्हें काट कर गिरा देते हैं। रावण के वाण कैसे निष्फल हो रहे हैं, जैसे दुष्टों के सम्पूर्ण मनोरथ ध्यर्थ तब सत बान सारथी मारेसि । परेउ भूमि जय राम पुकारेसि । राम कृपा करि सूत उठावा । तब प्रभु परम क्रोधं कह पावा ॥en तब रावण ने सौपाण सारथी को मारा, वह रामचन्द्रजी की जय पुकार र भूमि पर गिर पड़ा। रामचन्द्रजी ने कृपा कर के मातलि को उठाया, तब उन्हें वड़ा कोध हुभा ॥५॥ होते हैं ॥३॥ . १२०