पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४३

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+ Ee रामचरित मानसं । जहँ तह थकित करि कीस । गर्जेउ बहुरि दससोस । लछिमन कपीस समेत । भये सकल बीर अचेत ॥५॥ जहाँ तहाँ बन्दरों को मोहित कर के फिर रावण गर्जा । उसने ऐसी माया की कि लक्ष्मण और सुग्रीव के सहित सम्पूर्ण वानर अचेत हो गये ॥५॥ हा रास हा रघुनाथ । कहि सुभट मीजहिं हाथ । एहि बिधि सकल बल तोरि । तेहि कीन्ह कपट बहारि ॥६॥ हाय राम! हाय रघुनाथ !! कह कर योद्धा लोग हाथ मलते हैं। इस तरह सत्र के बलको तोड़ कर फिर उसने (रामचन्द्रजी को मोहित करने के लिए) कपट किया ॥६॥ प्रगटेसि बिपुल हनुमान । धाये गहे पाषान। तिन्ह राम धेरै जाइ। चहुँ, दिसि वरूथ बनाइ ॥७॥ बहुतेरे हनूमान प्रकट किया वे पत्थर ले कर दौड़े और जाकर चारों ओर यूथ बनाकर रामचन्द्रजी को घेर लिया ॥७॥ मारहु. धरहु जनि जाइ । कटकटहिँ पूँछ उठाइ । दह-दिसि लँगूर विराज । तेहि मध्य कोसल राज ॥८॥ मारो मत, जाकर पकड़ लो (ऐसा कहते हुए) पूंछ उठाये कंटकटाते हैं । दसों दिशाओं मैं लशूर विराजमान हैं, उसके बीच में कोसल देश के राजा रामचन्द्रजी हैं ॥८॥ हरिगीतिका-छन्द । तेहि बध्य कोसलराज सुन्दर, स्याम तनु साक्षा लही। जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर, बारि तुङ्ग तमालही ॥ प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर, बदत जय जय जय करी । रंधुनीर एकहि तीर कोपि निमेष महँ माया हरी ॥२७॥ उसके बीच में कोशलराज के श्याम शरीर की कैसी सुन्दर कृति प्राप्त हुई है, मानों असंख्यों इन्द्रधनुष के अच्छे ऊँचे गौड़े से घिरा हुआ तमाल वृत शोभित हो । प्रभु रामचन्द्रजी को देख कर देवताओं के मन में हर्ष और विषाद दोनों हुआ, वे जय जय पुकारने लगे। रघुनाथजी ने क्रोध कर के एक ही बाण से क्षणमात्र में माया हर ली ॥ २७ ॥ पूंछ और इन्द्रधनुष, रोम तनु और तमालवृक्ष उपमेय उपमान हैं। इस शोभा की कविजी विलक्षण कल्पना करते हैं जो न कभी सुनी वा देखी गई है, यह 'अनुकविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। इन पूछों से घिरने पर रामचन्द्रजी की अद्भुत छटा देख कर देवताओं को हर्ष हुआ, साथही शत्र के मायाजाल में फंसे जान विषाद हुआ, दोनों भाषों को साथ में उदय होना 'प्रथम समुच्चय अलंकार है। ३