पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५८

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षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । अब दीनदयाल दया करिये । मसि मोरि बिभेदकरी हरिये ॥ जेहि त बिपरीत क्रिया करिये। दुख सो सुख मानि सुखी चरिये॥१०॥ हे दीनदयाल ! अब दया कीजिए और मेरी भेद बुद्धि को हर लीजिए । जिससे मैं उलटा कम करता हूँ कि जो दुःख है उसको सुख मान कर उसी में प्रसन्न हो विहार करता हूँ ॥१०॥ खल-खंडन मंडन-रख्य-छमा। पद-पङ्कज सबित सम्भु उमा॥ नृप-नायक दे वरदानमिदं । चरनाम्बुज प्रेम सदा सुभाई ॥१९॥ आप दुष्टों के विनाशक और पृथ्वी के रमणीय भूषण हैं, आप के चरण-कमलों की सेवा शिव-पार्वती करते हैं। हे राजराज ! अपने चरण कमलों का प्रेम जो सदा कल्याणदाता है, वही मुझे वरदान दीलिए (आपके चरणों में सदा मेरा प्रेम बना रहे) ॥११॥ दो--विनय कीन्हि चतुरानन, प्रेम पुलकि अति गात । सोभा सिन्धु त्रिलोकत, लोचन नहीं अधात ॥१११॥ ब्रह्मा ने अत्यन्त प्रेम से पुलकित शरीर हो कर विनती की और शोभा के समुद्र (राम- चन्द्रजी) को अवलोकन कर उनके नेत्र नहीं अघाते हैं ॥१९॥ चौ० तेहि अवसर दसरथ तह आये । तनय बिलोकि नयन जल छाये। अनुज सहित अनुबन्दन कीन्हा ।आसिरलाद पिता तब दीन्हा ॥१॥ रस समय वहाँ दशरथजी भाये और पुत्रों को देख कर उनकी भाँखों में जल भर पाया। छोटे भाई के सहित प्रभु रामचन्द्रजी ने प्रणाम किया, तब पिता ने आशीर्वाद दिया ॥१॥ तात सकल तक पुन्य प्रसाज । जीतेउँ अजय निशाचर-राज ॥ सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी। नयल सलिल रोमावलि ठाढ़ी ॥२॥ रामचन्द्रजी ने कहा-हे पिताजी ! आप के पुण्य की महिमा से दुर्जय राक्षसराज को मैं ने जीता। पुत्र की पात सुन कर बड़ी प्रीति घढ़ी, आँखों में आँसू आ गया और रोमा- वली बड़ी हो गई । रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हे दृढ़ ज्ञाना । ताते उमा मोच्छ नहि पायो । दसरथ भेद-भगति मन लायो ॥३॥ रघुनाथजी ने प्रथम का प्रेम अनुमान कर पिता की ओर निहार कर उन्हें बढ़ शान दिया। शिवजी कहते हैं-हे उमा दशरथजी इसलिए मोक्ष नहीं पाये कि उन्होंने भेद-भक्ति में मन सगुनोपासक मोच्छ न लेही तिन्ह कह राम भगति निज देहीं । बार बार करि प्रभुहि प्रनामो । दसरथ हर्षि गये सुरधामा ॥४॥ लगाया था॥३॥ सगुण ब्रह्म की उपासना करनेवाले मोक्ष नहीं लेते, उनको रामचन्द्रजी अपनी भक्ति देते हैं। बार बार प्रभु को प्रणाम करके प्रसन्न होकर दशरथजी देवलोक को गए Mm