पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०८३

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१००६ रामचिरत-मानस । हरिगीतिका-छन्द। जनु धेनु बालकबच्छ तजि गृह, चरन बन परबस गई । दिन अन्तु पुरं रुख वक्त थन, हुङ्कार करि धावत भई ॥ अति प्रेम प्रभु सब मातु मैंटी, बचन मृदु बहु बिधि कहे। गाइविषम बिपतिबियोग-भवतिन्ह, हरष सुख अगनित लहे ॥४॥ ऐसा मालूम होता है मानों छोटे बछड़े को लैना गऊ घर में छोड़ कर पराधीनता वश वन में चरने को गई हो । दिन के अन्त में नगर की ओर थनों से दूध वहाती हुई हुंकार करके दौड़ी हो । प्रभु रामचन्द्रजी सब माताओं से अत्यन्त प्रीति के साथ मिले और बहुत तरह के कोमल वचन कहे । माताओं की वियोग जन्य भीषण विपत्ति जाती रही, उन्हें अपार हर्ष और सुख मिलtan जो स्थान रामचन्द्रजी के लिये कहना चाहिये वह माताओं को और जो माताओं के लिये कहना था वह रामचन्द्रजी के लिये कहा गया है। जहाँ राम तह प्रबंध निवास के अनुसार अयोध्या नब तकवन के समान थाऔर धन ही अवधपुरी थी। यह 'द्वितीय असङ्गति अलंकार' है। दो अँटेउ तनय सुमित्रा, राम चरन रति जानि ।। रामहि मिलत कैकई, हृदय बहुत सकुचानि ॥ रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीतिवान जान कर सुमित्रांजी पुत्र से मिलीं । रामचन्द्रजी से मिलते हुए केकयी हृदय में बहुत लज्जित हुई। लछिमन सबै मातन्ह मिलि, हरष आसिष पाई। कैकई कहँ पुनि पुनि मिले, मन कर छोम न जाइ ॥६॥ लक्ष्मणजी सब माताओं से मिल कर आशीर्वाद पा प्रसन्न हुए। ककयो से बार बार मिले किन्तु मन का क्षोभ नहीं जाता है ॥६॥ क्षोभ इस बात का कि पूर्व में केकयी पर बड़ा क्रोध मन में किया था किन्तु अब उसको लिदोष समझते हैं। चौ०-सासुन्ह सबन्हि मिली बैदेही । चरनन्हि लागि हरष अति तेही । देहि असीस बूक्ति कुसलाता । हाइअचलतुम्हार अहिवाता ॥१॥ सब सासुओं से जानकीजी मिली.चरणों में लग कर उन्हें घड़ी प्रसन्नता हुई। कुशलता पूछ कर आशीर्वाद देती हैं कि तुम्हारा अहिवात अचल हो ॥१॥ सब रघुपति मुख-कमल बिलोकहिँ । मङ्गल जानि नयन जल रोकहिँ ॥ कनकथार आरती उतारहिं । बार बार प्रभु गात निहारहि ॥२॥ सब रघुनाथजी के मुख-कमल को निहारती है और मङ्गल का समय जान कर नेत्रों के i