पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९३

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१०१४ रामचरित-मानसं । जे ज्ञान-मान-बिमत्त तव भव, हरनि भगति न आदरी । ते पाच सुर-दुर्लभ-पदादपि, पात हम देखत हरी ॥ बिस्वास करि सब्ध आस परिहरि, दास तव जे हाइ रहे । जमि नाम तव बिनु आम सरहिं भव, नाथ सेाइ स्मराम हे ॥६॥ जो ज्ञान के अहङ्कार से मतवाले हो कर संसार को हरनेवाली श्राप की भक्ति का प्रावर नहीं करते, हे हरे ! वे देवताओं को दुर्लभ पद (मनुष्यन्देह ) पा कर भी हम देखते हैं कि संसार में गिर जाते हैं। जो सब आशाओं को छोड़ कर विश्वास कर के श्राप के दास हो रहे हैं, हे नाथ । वे श्राप का नाम जप कर बिना परिश्रम ही संसार से पार हो जाते हैं, आप का मैं सुमिरण करता हूँ॥४॥ 'हम देखत' शब्द में अर्थ का श्लेष है, हमारे देखते हुए अर्थात् वेदपाठ करते रहने पर भी संसार में पतित होते हैं 'श्लेष अलंकार' है। जे चरन सिक अज पूज्य रज़ सुभ, परसि मुनि पतिनी तरी । नख निर्गता मुनि बन्दिता त्रय,-लोक पावनि सुरसरी ।। ध्वज कुलिस अडस कञ्जजुत बन, फिरत कंटककिन लहे। पद कब्ज द्वन्द मुकुन्द राम रमेस नित्य भजाम हे ॥१०॥ जो चरण शिव और ब्रह्मा को पूज्य हैं, जिनकी पवित्र धूलि के छू जाने से मुनि को पत्नी (अहिल्या) तर गई। जिन चरणों के नखों से तीन लोगों को पवित्र करनेवाली, मुनियों से चन्दनीय गङ्गाजी भिकली है । ध्वजा, वज्र, अङ्कश और कमल के चिह्नो से युक्त पन में फिरते हुए जिन चरणों को कंटकियों अर्थात् काँटों में रहनेवाले कोल भीलों ने पाये, जो चरण कमल बन्द से मोक्ष देनेवाले हैं, हे लचमीकान्त रामचन्द्रजी ! हम उन चरणों को निस्य भजते हैं॥१०॥ अब्यक्त-मूलमनादितरू स्वच, चारि निगमागम भने । पठ-कन्ध साखा पञ्चधीस अनेक पर्न सुमन घने ॥ फल जुगल-बिधि, कटु मधुर बेलिं, अकेलि जेहि आखित रहे । पल्लवत फूलत नवल नित संसार-बिटप नमाम हे ॥११॥ श्राप संसार रूपी अनादि वृक्ष हैं, अव्यक्त (जो अस्पष्ट न हो निगुण स्वरूप) जड़ है और वेद शास्त्रों ने चार प्रकार की छाल (वकल) कहे हैं । छे मोटी डाले हैं, पचीस शास्त्रा (पतली ढालें ) हैं, अनेक पत्ते और अनन्त पुष्प हैं । जिस (वृक्ष) के आधार पर एक लता रहती है उसमें कडुए और मोठे दो तरह के फल' लगते हैं । नित्य नवीन पत्तों से लदे और फूलते हुए संसार-वृक्ष रूप आप को मैं नमस्कार करता हूँ ॥११॥ वृक्ष के समस्त अंगों का आरोप वेदों ने रामचन्द्रजी को संसार-वृक्ष कह कर उन