पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. १०२४ रामचरित मानस । चौ०.दैहिक दैनिक भौतिक तापा । राम-राज नहिँ काहुहि ब्यापा ॥ सब नए करहि परसपर प्रीती। चलहिँ स्वधर्म निरतखुति नीती॥१॥ रामचन्द्रजी के राज्य में किसी को दैहिक दैविक और भौतिक ताप नहीं व्यापमान हुआ । सब लोग आपस में प्रेम करते हैं, वेद की नीति में तत्पर अपने धर्मानुसार चलते हैं ॥१॥ दैहिकताप-शरीर से उत्पन्न होनेवाले ज्वरादि रोग । दैविकताप-दुर्भिक्ष पड़ना, बिजली गिरना, चूड़ा आना इत्यादि । सौतिकताप-लॉप, बिच्छू, सिंह मादि से उत्पन्न हुमा कष्ट । पही तीनों ताप प्रसिद्ध हैं | समा की प्रति मै सुति रीती, पाठ है। चारिहु चरन धरम जग माहीं । पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाही। रामभगति-रत सच नर नारी । लकल परमगति के अधिकारी ॥२॥ (सत्य, शौच, दया और दान) चारों चरणों से धर्म जगत में परिपूर्ण हो रहा है, सपने में भी पाप नहीं देख पड़ता है। सब श्री-पुरुष रामभक्ति में तत्पर हैं, इससे सभी मोक्ष के अधिकारी हैं ॥२॥ अल्प-मृत्यु नहिँ फवनिउँ पीरा । सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा ॥ नहि दरिद्र कोउ दुखी न दोना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ॥३॥ न अल्पायु होती है और न कोई दुःख होता है, सघ सुन्दर शरीरवाले तथा सब आरोग्य हैं। दरिद्रता नहीं है, न कोई दुखी है, न दीन है, न कोई मूर्ख है और न कुल- क्षती है ॥३॥ व निर्दल धर्म-रत पुनी । नर अरु नारि चतुर सब गुनी ॥ सब गुनज्ञ पंडित सब ज्ञानी । सब कृतज्ञ नहिँ कपट सयानी ॥४॥ सब पाखराड रहित, धर्म में तत्पर और पुण्यात्मा हैं, सब पुरुष और स्त्री चतुर गुणवान हैं। सव गुण के ज्ञाता, पण्डित और सभी शानी हैं, सब किये हुए उपकार को माननेवाले, लिसी में कपट-चातुरी नहीं है ॥४॥ . दो०-राम-राज नभगेस सुनु, सचराचर जग माहि । काल कर्म सुभाव गुन, कृत दुख काहुहि नाहिँ ॥२१॥ कागभुशुन्डजी कहते हैं-हे पक्षिराज ! सुनिये, संसार में जड़ चेतन को काल कम, स्वभाव और गुण के किये हुए दुःख किसी को नहीं होते हैं ॥२२॥ फाल, कर्म, स्वभाव, गुण कारण रूप हैं । कारण के विधमान रहते दुःस्त्र रूप फल रामराज्य के प्रभाव से किसी को न होना 'विशेषोक्ति अलंकार है। काल-समय विकार सर्दी गर्मी आदि । कर्म-करनी जो की जाय । स्वभाव-मली या बुरी आदत । गुण- लक्षणों की विशेषता मिलनसारी वा झगड़े इत्यादि । 7