पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११५

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बोले ॥३॥ आजु धन्य १०३६ रामचरित मानस । चन्द्रजी को पलक न लगा कर एकटक ले निहारते हैं और प्रभु हाथ जोड़े मस्तक नवा रहे हैं ॥२॥ तिन्ह के दसा देखि रघुबीरा । सवत नयन जल पुलक सरीरा ॥ कर गहि प्रभु मुनिकर बैठारे । परम मनेाहर बचन उचारे ॥३॥ रघुनाथजी ने मुनिवरों की दशा देखी कि उनकी आँखों से जल बह रहा है और शरीर पुलकित हुआ है । प्रभु रामचन्द्रजी ने हाथ पकड़ कर उन्हें बैठायो और अत्यन्त मनोहर वचन मैं सुनहु अनोखा । तुम्हरे दरस जाहिँ अघ खीसा ॥ बड़े भाग पाइय सत्तसङ्गा । बिनहिँ प्रयास होइ भव भङ्गो ॥४॥ हे मुनीश्वर ! सुनिये, बाज मैं धन्य हुआ हूँ, आप के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं । सत्सङ्ग बड़े भाग्य से मिलता है, जिससे बिना परिश्रम ही संसार (जन्म, मृत्यु, गर्भवास) छूट जाता है । दोसन्तसङ्ग अपनगकर, कामी अवकर पन्थ । कहहिं सन्त कवि कोबिद, चुति पुरान सद्ग्रन्थ ॥३३॥ सन्तों को सङ्गति मोक्ष और कामी पुरुषों का साथ संसार का मार्ग है । सन्त, कवि, विद्वान, वेद, पुराण और लदनन्थ ऐसा कहते हैं ॥ ३३ ॥ चौ०-सुनि प्रक्षु बच्चन हरषि मुनि चारी । पुलकित तनु अस्तुति अनुसारी जय भगवन्त अनन्त अनामय । अनघ अनेक एक करुनामय॥१॥ प्रभु रामचन्द्र जी के वचन सुन कर चारों मुनि प्रसन्न हो पुलकित शरीर से स्तुति करने लगे। हे भगवन् ! श्राप की जय हो, श्राप अनन्त, आरोग्य, मिपाप अनेक, अद्वितीय और दया के रूप हैं ॥१॥ अनेक सी और एक भी, इस विरोधी वर्णन में विरोधाभास अलंकार' है। जय निर्गुन जय जय गुनसागर । सुखमन्दिरसुन्दर अति आगर ॥ जय इन्दिरा-रमन जय भूधर । अनुपम अज अनादि सामाकर॥२॥ हे निर्गुण रूप ! श्राप की जय हो, हे गुणों के सागर ! आप की जय हो, जय हो, आप सुख के भवन और अत्यन्त सुन्दरता के स्थान है । हे लक्ष्मी को रमानेयात ! आप की जय हो, हे पृथ्वी के संरक्षक श्राप की जय हो । आप उपमा रहित, अजन्मे, अनादि और शोमा की खान हैं।॥ २॥ ज्ञान निधान अमान मान-प्रद । पावन सुजस पुरान बेद बद । तज्ञ कृतज्ञ अज्ञता भञ्जन । नाम अनेक अनाम निरजन ॥३॥ हान के भएडार, अभिमान रहित, प्रतिष्ठा के दाता, ऐसा पवित्र यश वेद और पुराण