पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३९

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१०६० रामचरित-मानस । नित हरिकथा होति जहँ भाई । पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई ॥ जाइहि सुनत सकल सन्देहा । राम चरन होइहि अति नेहा'ngn हे भाई ! जहाँ नित्य ही भगवान की कथा होती है, मैं तुम्हें वहाँ भेजता हूँ जा कर सुनो। सुनते ही सारा सन्देह जाता रहेगा और रामचन्द्र जी के चरणों में अत्यन्त स्नेह उत्पत्र होगा l दो०-बिनु सतसङ्ग न हरिकथा, तेहि बिनु मोह न भाग। माह गये बिनु राम-पद, हाइ न दृढ़ अनुराग ॥१॥ बिना सत्सङ्ग के हरिकथा नहीं सुलभ होती और बिना हरिकथा के अज्ञान नहीं दूर होता। बिना अशान के दूर सुए रामचन्द्र जी के चरणों में पढ़ प्रेम नहीं होता ॥६॥ सत्सङ्गकारण और हरिकथा-काय, हरिकथा-कारण और मोहनाश कार्य, मोहनशि- कारण और रामपर प्रेम-कार्य और रघुनाथजी का मिलना कार्य है । कारण से कात प्रकट हो कर फिर कारण का होना 'कारणमाला अलंकार' है। चो-मिलहि न रघुपति शिनु अनुरागा। किये जोगजपज्ञान बिरागा ॥ उत्तर दिसि सुन्दर गिरि नोला। तह रह कागभुमुंड मुसीला १॥ विमा प्रेम के योग. जप, शान, वैराग्य करने पर भी रघुनाथ जी नहीं मिलने । उत्तर दिशा में सुन्दर नीलगिरि है, वहाँ सुशील कागभुशुण्ड निवास करते हैं ।।।। रामभगत-पथ परम प्रशेना । ज्ञानी गुन गृह बहु कालीना॥ रामकथा सो काइ निरन्तर । सादर सुन विधिधि बिग बरा॥२॥ रामभक्ति के मार्ग में अत्यन्त प्रवीण, शानी, गुणों के स्थान और बहुन पुराने हैं । वे निरः तर रामचन्द्रजी का चरित्र कहते हैं और अनेक प्रकार के श्रेष्ठ पक्षी आदर के साथ सुनते जाइ सुनहु तहँ हरिगुन भूरी । होइहि माहजनित दुख दूरी। मैं जब तेहि सन्न कहाँ बुझाई । चलेउ हरषि ममपद सिर नाई ॥३॥ वहाँ जा कर भगवान का अनन्त यश सुनो, अशान से उत्पन्न दुःख दूर हो जायगा। जब मैं ने उन्हें सब समझा कर कहा, तब मेरे चरणों में मस्तक नवा कर गरुड़ प्रसन्न हो कर पार्वतीजी ने पूछा कि स्वामिन् ! आपने गाड़ को क्यों नहीं हरियश सुनाया, उन्हें कागभुशुण्ड के पास काहे को भेजो। 'ताते उमा न मैं समुझावा ) रघुपति कृपा मरम मैं पावा। होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवइ वह कृपानिधाना ॥४॥ शिवजी ने कहा-हे उमा ! मैं ने इसलिये नहीं समझाया कि इसका छिपा भेद रघुना. हैं ॥२॥ चले ॥३॥ . .