पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५५

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+ १०७६. रामचरित मानस । नाथ इहाँ कछु कारन आना । सुनहु सो सावधान हरिजाना ।। ज्ञान अखंड एक सीताबर । माया बस्य जीव 'सचराचर ॥२॥ हे नाथ, विष्णु के बाहन! यहाँ कुछ दूसरा. ही कारण है, वह सावधान हो कर मुनिए । अखण्ड ज्ञानी एक सोतो नाथ ही हैं, जड़ और चेतन जीवमात्र माया के अधीन हैं ॥२॥ जाँ सब के रह ज्ञान एकरस । ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ॥ माया बस्य जीव अभिमानी । ईस बस्य माया गुन खानी ॥३॥ यदि सप को एक समान शान रहे, तव कहिए ईश्वर और जीव का भेद कैसा? यह अभिमानी जीव माया के अधीन है वह गुणों की खान मावा ईश्वर के वश में है ॥३॥ परबल जीव स्वबरू समवन्ता । जीव अनेक एक . श्रीकन्ता । भुधा भेद जद्यपि कृत माया । बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ॥४॥ जा पराधीन है और ईश्वर स्वाधीन हैं, जीव असंख्यों हैं पर, नारायण अकेले ही हैं। यद्यपि भाण का किया हुश्मा बिलगाव मिथ्या है, किन्तु बिना भगवान की कृपा के करोड़ो उपाय करने पर नहीं जाता ॥४॥ दो०- रामचन्द्र के जल बिनु, जो चह पद निर्धान । ज्ञानबन्त अपि स नर, पसु बिनु पूँछ बिषान॥ जो बिना रामचन्द्रजी का भजन किये मोक्ष-पद चाहता है, शानी होने पर भी वह मनुष्य बिना पूँछ और सींग का पशु है। राकापति जोड़स उअहि, तारागन समुदाइ। सकल गिरिन्ह दव लाइश, बिनु रबि राति न जाई ॥८॥ पूर्णिमा के सोलह चन्द्रमा उदय हों और असंख्यों तारागण उगें, सम्पूर्ण पर्वतों में मांग लगा दी जाय, पर बिना सूर्य के रात्रि नहीं दूर होती ॥७॥ चौ--ऐसेहि दिनु हरिमजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ॥ हरिसेवकहि न ब्याप अंबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ॥१॥ हे जगनाथ ! इसी तरह बिना भगवान का भजन किये जीवों का क्लेश नहीं मिटता।. हरिसेवकों को अविद्या माया नहीं व्यापती, प्रभु रामचन्द्रजी की आशा से उनको विद्या माया व्यापती है । तात नास न होइ दास कर । भेदभगति बाढइ बिहङ्ग घर ॥ श्चम से चकित राम मोहि देखा । बिहँसे सो सुनु चरित बिसेखा ॥२॥ हे पक्षिश्रेष्ठ ! इससे दासों का नाश नहीं होता (जीव को दास और ईश्वर को स्वामी समझगा, इस) भेद से भक्ति बढ़ती है । रामचन्द्रजी मुझे भ्रम से चकपकाया देख कर हँसे, उस विशेष चरित को सुनिये ॥२॥