पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५६

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'विलक्षण प्रसंख्यों लोक जिनकी रचना एक से एक बढ़ कर अति बिचित्र तह लोक अनेका । रचना अधिक सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०७७ तेहि कौतुक कर मरम न काहू । जाना अनुज न मातु पिताहू ॥ जानुपानि धाये मोहि धरना। स्यामलगात अरुन कर करना ॥३॥ उस कुवहल भेद छोटे भाई माता-पिता किसी ने भी नहीं जाना । श्यामल शरीर, खाल हाथ और चरणवाले रामचन्द्रजी घुटने और हाथ के वल से मुझे पकड़ने को दौड़े ॥३॥ तब म भागि चलेउँ उरगारी । राम गहन कह शुजा पसारी ॥ जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तह हरि भुज देखउँ निज पाला rea हे गरुड़ जी ! तय मैं भाग चना और रामचन्द्रजी ने पकड़ने के लिये घाँह फैलाई ।ज्यों ज्यों मैं आकाश में दूर उड़ता जाना था, वहाँ भगवान की भुजा अपने पास ही देशाता था ॥3॥ दो-ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं, चितयउँ पार उड़ात । जुग अङ्गुल कर बोच सब, राम शुजहि मोहि तात ।। मैं ब्रह्मा के लोफ तक गया और उड़ते ही में पीछे देखा तो हे तात । रामचन्द्रजी को भुजा से और मुझ से सप दो अंगुल का अन्तर था। राजमहल से लेतर सम्पूर्ण आकाश में ब्रह्मधाम पर्यन्त रामचन्द्रली को भुजाओं का वर्णन 'इतीय विशेष अलंकार है। सप्ताबरन भेद करि, जहाँ लगे गति मारि। गयउँ तहाँ प्रभुज निरखि, ब्याकुल अयउँ बहोरि ॥७॥ सातों परयों को भेद कर जहाँ तक मेरी गति थी गया, वहाँ भी प्रभु की भुजाशों को देख कर फिर मन में विकल हुआ ( कि अब कहाँ जाऊँ ) nam जल, वायु, अग्नि, श्राकाश, अहङ्कार, महत्तत्व और प्रकृति, यही सातावरण '(धेरै) हैं। चौ०-मूंदेऊ नयन त्रसित जब भयऊँ । पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ। मोहि बिलोकि राम सुसुकाहीं । बिहँसत तुरतगयउँ मुखमाहीं ॥१॥ जब मैं भयभीत टुमा तय माँस बन्द कर ली, फिर वितवते ही अयोध्यापुरी में गया। मुझे देख कर रामचन्द्रजी मुस्कुराने लगे हंसते ही तुरन्त मैं उनके मुख में चला गया ॥१॥ उदर माँझ एका ॥२॥ अंडजराया। देखउँ बहु ब्रह्मांड निकाया । हे पक्षिराज । सुनिये, उदर में बहुत से प्रामाण्डौ के समूह मैं ने देखा । यहाँ अत्यन्त