पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५९

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१०६० रामचरित-सान। करउँ बिचार बहारि बहोरी। मोह कलिल व्यापित मति मोरी ॥ उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउ समित मन मोह बिसेखा ॥१॥ बार बार मैं विचार करता था कि मेरी बुद्धि धने मोह में फंसी है। दो घड़ी में यह सब मैं ने देखा, अश्वान की विशेषता ले मन थक गया (मालूम होता था कि सैकड़ों कल्प मटकते झुए बीत गये) ॥ दो० देखि कपाल बिकल मोहि, बिहँसे तब रघुबीर । बिहँसतही सुख बाहेर, आयउँ सुनु मतिधीर ॥ तब कृपालु रघुनाथजी मुझे व्याकुल देख कर हँसे, हे वीरवुद्धि ! सुनिये, हँसते ही मैं सुख के बाहर आ गया। सोइ लंरिकाई मोसन, करन लगे पुनि राम । कोटि झाँति समुझानउँ, मन न लहइ दिसाम ॥८॥ वही लड़कपन फिर रामचन्द्रजी मुझ से करने लगे, करोड़ों तरह से मन को समझाता हूँ, पर चैन नहीं मिलता है ॥२॥ चौ-देखि चरित यह सो प्रभुताई । समुझत देह दसा बिसराई ॥ धरनि परेउ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ॥१॥ यह चरित्र देख कर और महिमा समझ कर मुझे देह की दशा भुला गई । मुख से बात नहीं निकलती, यह कह कर लि-हे दुखीजनों के रक्षक ! मेरी रक्षा कीजिये, मुझे बचाइये, धरती पर गिर पड़ा ॥१॥ प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलेकी । निज भाया प्रभुता तब रोको । कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ । दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ॥२॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने मुझे प्रेम-विहल देख कर तव अपनी माया की प्रभुता को रोका। करकमल को स्वामी ने मेरे सिर पर रक्खा और दीनदयाल ने मेरा सम्पूर्ण दुःख हर लिया ॥२॥ कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा । सेवक सुखद कृपा सन्दोहा । प्रभुता प्रथम विचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी ॥३॥ सेवकों को मुख देनेवाले, दया की राशि रामचन्द्र जी ने मुझे मोह से रहित कर दिया। प्रथम की महिमा समझ समझकर बड़ा आनन्द होने लगा ॥ . भगतबलता मनु कै देखी । उपजी मम उर प्रीति बिसेखी ॥ सजल नयन पुलकित कर जोरी । कीन्हेउँ बहु बिधि बिनय बहारी॥४॥ प्रभु रामचन्द्रजी की भक्त वत्सलता देख कर मेरे हृदय में बड़ी प्रीति उत्पन्न हुई। नेत्रों में जल भर आया, पुलकित शरीर से हाथ जोड़ कर फिर बहुत प्रकार की विनती की ॥२॥