पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७०

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नहीं होते। नाथ सुना सप्तम सापान, उत्तरकाण्ड । १०६१ प्रभु अपने अभिबेक लें, बूझउँ स्वाली ताहि । कृपासिधु सादर कहहु, जानि दास निज माहि ॥३॥ हे प्रभो ! मैं अपने प्रशानपन से आप से पूछता हूँ। हे कृपासागर स्वामिन् ! मुझे अपना दास जान कर भादरपूर्वक कहिये ॥६॥ चौ०-तुम्ह सर्वज्ञ सज्ञ तम पारा । सुमति सुसील सरल आचारा ॥ ज्ञान विरति विज्ञान निवाला । रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ॥१॥ आप सर्वश, तत्वदर्शी, प्रशान से परे, बुन्दर मतिमान, सुशीला, सीधे प्रावरणवाले, हान, वैराग्य और विशन के स्थान है तथा रघुनाथजी के श्राप पारे दास हैं ॥१॥ कारन कवन देह यह पाई । तात सकल सोहि कहहु बुलाई ॥ रामचरितसर सुन्दर बाभो । पायहु कहाँ कहहु नलगामो ॥२॥ हे तात किस कारण आपने यह देह पाई, मुझे सब समझा कर कहिये । हे स्वामिन् । आप व्योमचारी हैं, कहिये सुन्दर रामचरितमानस किस जगह पाया। ॥२॥ नभगामी' शब्द सव्य है कि कथा सत्सक से मिलती है और पक्षी सत्लङ्ग के योग्य मैं अस सिव पाहौँ । महाप्रलयहु नास तब नाही मुधा बचन नहिं ईश्वर कहई । साउ मारे मन संसय अहई ॥३॥ हे नाथ! हमने शिवजी से ऐसा सुना है कि महाप्रलय में भी आप का नाश नहीं होता। ईश्वर झूठ वचन नहीं कहते, वह भी मेरे मन में लन्देह है ॥३॥ अग जग जीन नागनर देवा । नाथ सकल जग काल कलेवा ॥ अंडकटाह अमित लयकारी । काल सदा दुरतिक्रम भारी ugu हे प्रभो ! जड़, चेतन, नाग, नर और देवता संसार के समस्त जीव काल के कलेवा मात्र हैं (सब को सजाने पर भी वह श्रधातTET) असंख्य प्रहापडों का नाश करनेवाला काल निरन्तर बड़ा ही प्रयल है । सभा की प्रात में, मुधा के स्थान में 'मृषा' पाठ है। से-तुम्हहिं न ब्यापत काल, अति कराल कारन कनन । मोहि सा कहहु कृपाल, ज्ञान प्रभाव कि जोगबल ॥ वह अत्यन्त भीषण काल माप को नहीं व्यापतो, इसका क्या कारण है ? हे कृपालु ! मुझे उसको समझा कर फहिये, शाम का प्रभाव है या कि योग पल ? दो-प्रभु तव आलम आयउँ, मोर माह श्रम भाग । कारन कवन सो नाथ सब, कहहु सहित अनुराग NEPAL हे प्रभो! आप के भाश्रम में आते ही मेरा अशान और भ्रम भाग गया। हे स्वामिन् ! इसका क्या कारण है वह सब प्रेम के साथ कहिये ॥