पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१३५

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रामचरितमानस । चौ०-अब जौँ तुम्हहिँ सुता पर नेहू । तो अस जाइ सिखावन देहूं । करइ सो तप जैहि मिलहि महेसू । आन उपाय न मिटिहि कलेसू ।।१।। अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है तो जा कर ऐसी शिक्षा दे कि वह तप करे, जिससे शिवजी मिले, दूसरे उपायों से फ्लेश न मिटेगा ॥१॥ नारद बचन सगर्भ सहेतू । सुन्दर सब-गुन-निधि-वृषकेतू । अस बिचारि तुम्ह तजहु असङ्का । सबहि भाँति सङ्कर अकलङ्का ॥२॥ नारदजी के बचन साभिप्राय और कारण से युक्त हैं, शिवजी सुन्दर संघ गुणों के स्थान है। ऐसा समझ कर तुम मिथ्या सन्देह त्याग करो, शंकरजी सभी भाँति निस्कलंक है ॥२॥ सुनि पति-बचन हरषि मन माहीं । गई तुरतं उठि गिरिजा पाहीं ॥ उमहि बिलोकि नयन भरि बारी । सहित सनेह गोद बैठारी ॥३॥ पति की बात सुन मनमें प्रसन्न होकर उठी और तुरन्त पार्वतीजी के पास गई। उमाजी को देख आँखों में जल भर कर स्नेह के साथ गोद में बिठा लिया ||३|| बारहिँ बार लेति उर लाई । गदगद कंठ न कछु कहि जाई ।, जगत-मातु सर्बज्ञ भवानी । मातु-सुखद बोली मृदु-बानी ॥१॥ वारबार हृदय से लगा लेती हैं, अत्यधिक प्रेम से गला भर श्राया, कुछ कहा नहीं जाता है । जगन्माता भवानी सब जाननेवाली हैं, (उनके हृदयका असमन्जस जान कर) माता को सुख देनेवाली कोमल वाणी से बोली || मैना के हृदय में पतिविषयक रतिभाव है। उनकी सुकुमार अवस्था देख कर और तपश्चर्या की कठिनाइयों का अनुमान कर मन में स्नेह से विह्वल हो उठी, वाणी रुक गई, कुछ कह नहीं सकती। दो०-सुनहि मातु 'मैं दीख अस, सपन सुनावउँ ताहि । सुन्दर गौर सुविप्र-बर अस उपदेसेउ मोहि ७२ ॥ हे माताजी ! सुनिए, मैं ने यह स्वप्न देखा है, वह तुम्हें सुनाती हूँ। सुन्दर, गौर, अच्छे श्रेष्ठ ब्राह्मण ने मुझे ऐसा उपदेश दिया है ॥७२॥ चौo-करहि जाइ तप सैलकुमारो । नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥ मातु-पितहि पुनि यह मत भावा । तप-सुख प्रद दुख-दोष-नसावा ॥१॥ हे शैलकन्या ! जा कर तपस्या कर, नारदजी ने जो कहा है उसको सच समझ.1 फिर तेरे माता-पिता के मन में यह सम्मति भाई है, तप सुख देनेवला और दुःख दाप का नसाने- वाला है॥१॥ माता के मन का अभिप्राय जान कर स्वप्न के बहाने तात्पर्य्य सूचित करके उनके मन का असमञ्जस दूर करना 'सूचम अलंकार है।