पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१४९

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G रामचरित मानस । बहुत से फूले हुए कमलों पर झुण्ड के झुण्ड सुहावने भ्रमर गूंज रहे हैं। राजहंस, कोकिल और सुग्गा रसीली बोली बोल रहे हैं, अप्सराएँ गान कर के नाचती हैं दो०-सकल कला करि कोटि विधि, हारेउ सेन समेत । चली न अचल समाधि सिव, कोपेउ हृदय निकेत ॥ ६ ॥ करोड़ों तरह से सारी कलाबाज़ी कर के लेना समेत हार गया। जब शिवजी की अटल समाधि नहीं डिगी, तव हृदय में क्रोधित हुआ ॥६॥ चौ० देखि रसोल बिटप बर साखा । तेहि पर चढ़ेउ मदन मन माखा॥ सुमन चापनिज सर सन्धाने। अति सिताकि सबनलगि ताने॥१॥ श्राम के पेड़ की अच्छी डाली देख कर, मन रुष्ट होकर कामदेव उस पर चढ़ गया। फूल के धनुष पर अपना वाण जोड़ा और बड़े क्रोध से ताक कर कान पर्यन्त खींचा ॥१॥ छाँडेउ विषम बान उर लागे । छूटि समाधि सम्भु तब जागे ॥ . भयउ ईस मन छेभि बिसेखी । नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥२॥ भीषण बाण छोड़ा, वह हदय में लगा और समाधि छूट गई, तब शिवजी जाग पड़े। महा- देवजी के मन में बहुत ही क्षोभ (कामवासना जनित ताप) हुश्रा, उन्होंने आँख खोल कर सारी दिशाओं में देखा ॥२॥ अपूर्ण कारण से कार्य का उत्पन्न होना अर्थात् फूल के धनुष से घाण चलाना कारण है, उससे शिव भगवान् की समाधि भङ्ग होकर मन में उद्धेग होना कार्य द्वितीय विभाधना अलंकार' है। सौरभ-पल्लव मदन बिलोका । भयउ कोप कम्पेउ त्रैलोका ॥ तब सिव तीसर नयन उघारा । चितवत काम भयउ जरिछारा॥३॥ श्राम के पत्ते में कामदेव को देखा, उसे देखते ही क्रोध हुआ जिससे तीनों लोक काँप उठे। तष शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उससे निहारते ही कामदेव जल कर राख हो गया ॥३॥ तीसरी आँख ले चितवना कारण है और कामदेव का जल कर खाक हो जाना कार्य है। दोनों साथ ही होना 'अक्रमातिशयोक्ति अलंकार' है। हाहाकार भयउ जग भारी भये समुझि काम-सुख सोचहि भागी। भये अकंटक साधक जोगी ॥४॥ असुर सुखारी॥ संसार में भारी हाहाकार हुश्रा, देवता डर गये और दैत्य प्रसन्न हुए । काम-सुख समझ कर भागी सोचते हैं, साधक और योगी बाधाहीन हो गये ॥४॥ 'काम का जल जाना' वस्तु एक ही, उससे देवताओं का डरना, दैत्यों का खुशी होना, कामियों को पश्चात्ताप और साधकों तथा योगियों का निर्विन ( बेखटके) होना विरुद्ध कार्यो की उत्पत्ति 'मथम व्याघात अलंकार है। । डरपे सुर २