पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१९३

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१३८ रामचरित मानस । जव श्राप का स्मरण करने से दूसरों के कामादि दोष नष्ट होते हैं, तब आप के लिए काम का जीतना कुछ बड़ी बात नहीं है। यह व्यङ्गार्थ वाच्यार्थ के बरावर तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है। चौ०-सुनु मुनि मोह हाइ मन ताके । ज्ञान बिराग हृदय नहिं जाके ॥ ब्रह्मचरज-व्रत-रत सतिधीरा । तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा ॥१॥ हे मुनि ! सुनिए, मोह व उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान वैराग्य नहीं है। श्राप तो ब्रह्मचर्य-व्रत में तत्पर धीर बुद्धि हैं, क्या तुम्हें कामदेव पीड़ित कर सकता है ! (कदापि नहीं)॥१॥ यहाँ 'करइ मनोभव पीरा पद से मुख्यार्थवाध होकर आगे के लिए लक्षणा-मूलक गूद व्यङ्ग है कि कामदेव पीड़ा करेगा, अधिक देर नहीं है। नारद कहेउ सहित अभिमाना । कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥ करुनानिधि मन दीख बिचारी । उर-अडरेङ गर्ब-तरु भारी ॥ २॥ नारद ने अभिमान पूर्वक कहा- हे भगवान् ! यह सब श्राप की कृपा है । करुणानिधान भगवान् ने मन में विचार कर देना कि इनके हृदय में भारी गर्व रूपी वृक्ष का खुमा निकल पाया है ॥२॥ बेगि सो मैं डारिहउँ उपारी । पन हमार सेवक-हितकारी ॥ मुनि कर हित मम कौतुक होई । अवसि उपाय करब मैं साई ॥३॥ मैं उसको तुरन्त उखाड़ डालूँगा, क्योंकि भक्तों की भलाई करना हमारा प्रण है । मुनि का हित और मेरा स्नेल होगा, अवश्य मैं वही उपाय करुंगा ॥३॥ तब नारद हरि-पद सिर नाई। चले हृदय अहमिति अधिकाई ॥ नीपति निज-माया तब प्रेरी । सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥an तव नारद भगवान के चरणों में सिर नवा कर चले, उनके हृदय में गर्व की अधिकता थी। तदनन्तर लक्ष्मीकान्त ने अपनी माया को आज्ञा दी, उसकी कठोर करनी को सुनिए nan दो०-विरचेल मग महँ नगर तेहि, सत जोजन विस्तार । श्रीनिवासपुर ते अधिक, रचना विविध प्रकार ॥१२॥ उसने रास्ते में चार सौ कोस का लम्बा बौड़ा नगर बनाया। उसकी अनेक तरह की रचना (बनावट) वैकुण्ठ से भी बढ़ कर है ।। १२६ ॥ चौ०-बसहि नगर सुन्दर नर नारी । जनु बहु मनसिज-रति तनु धारी॥ तेहि पुर बसइ सोलनिधि राजा । अगनित हय गय सेन समाजा ॥१॥ उस नगर में सुन्दर स्त्री-पुरुष वसते हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों बहुत से कामदेव और रति ने शरीर धारण किया हो । उस नगर में शीलनिधि नामक राजा असंख्यो घोड़े हाथी, सेना और जन-समाज के सहित लुसता है ॥ १॥