पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२१७

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रामचरित-मानस । १६२ (पराजित होने की उसके) मन में बड़ी ग्लानि हुई, वह अभिमानी राजा भनुप्रताप से नहीं मितो ॥२॥ रिस उर मारि जिमि गजा। बिपिन बसइ तापस के साजा ॥ तासु समीप गवन नृप कीन्हा । यह प्रताप-रवि तेहि तब चीन्हा ॥३॥ वह राजा दरिदो की तरह हृदय में क्रोध पचाकर तपस्वी के बनाव से वन में रहता है। जब राजा भानुप्रताप उसके समीप गये, तब उसने पहचान लिया कि यह भानु प्रताप है ॥३॥ राउ तृषित नहिं सो पहिचाना । देखि सुबेष महामुनि जाना ॥ उतरि तुरँग ते कोन्ह प्रनामा । परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥४॥ राजा भानुप्रताप प्यासे थे इसजे उसे नहीं पहचाना, अच्छा वेश देखकर महामुनि लममा । घोड़े से उतर कर प्रणाम किया, पर बड़े चतुर हैं अपना नाम नहीं बतलायो lun दो-भूपत्ति दृषित बिलोकि तेहि, सरवर दीन्ह दिखाय । मज्जन पान समेत हय, कोन्ह नृपति हरपाय ॥१५॥ राजा को प्यासा देखकर उसने जाकर तालाव क्तला दियो । राजा भानुप्रताप ने स्नान कर और घोड़े के सहित प्रसन्नता पूर्वक जलपान किया ॥२५॥ चौ०-गै समसकल सुखी नूप भयऊ । निज आखम तापस लेइ गयऊ । आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस वालेउ यानी सम्पूर्ण थकावट दूर हो जाने से राजा सुखी हुए, तब वह तपस्वी उन्हें अपने भाश्रम में ले गया। सूर्यास्त जान कर आसन दिया, फिर फोमल वाणी से तपस्वी राजा बोला ॥१॥ को तुम्ह कस बन फिरहु अकेले । सुन्दर जुवा जीव पर हेले ॥ चक्रवर्ति के लच्छन तारे । देखत दया लागि अति मारे ॥२॥ तुम कौन हो और वन में अकेले क्यों फिर रहे हो ? सुन्दर तरुण अवस्था और जीव पर खेल रहे हो ? तुम में चक्रवर्ती के लक्षण हैं, वह देख कर मुझे बड़ो दया लगी ॥२॥ कपट मुनि का राजा के प्रति वनावटी दया दिखाना 'भावामास' है। नाम प्रताप-भानु अवनीसा । तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥ फिरत अहेरे परेउँ भुलाई। बड़े भाग देखेउँ पद आई ॥३॥ हे मुनिराज ! सुनिए, एक भानुप्रताप नाम के राजा है, मैं उन्हीं का मन्त्री हूँ। वन में अहेर के लिए फिरता हुआ भूल पड़ा, बड़े भाग्य ले आकर अपके चरणों को देखा ॥३॥ हम कहूँ दुर्लभ दरस तुम्हारा । जानत हाँ कछु भल हानिहारो॥ कह मुनि तात भयउ अँधियारा । जोजन सत्तरि नगर तुम्हारा ॥४॥ हम को आप का दर्शन दुर्लभ था, जानता हूँ कि कुछ भला होनेवाला है। कपटी मुनि ने कहा-हे तात अग्रेप हो गया, पाप का नगर दो सातो कोस है ॥४॥ F 1