पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२९

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१७४ शर्मचरित मानसं । जुग सम नूपहि गयउ दिन तीनी । कपटी मुनि-पद रहि मति लोनी । समय जानि उपरोहित आवा । नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥४॥ राजा को तीन दिन युग के समान बीते; कपटी-मुनि के चरणों में उनकी बुद्धि लगी हुई थी। समय जान कर पुरोहित पाया और एकान्त में राजा को सव (वा में कही हुई बात) कह कर समझाया॥४॥ दो-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु, भ्रम- बल रहा न चेत । बरे तुरत सत-सहस बर, विप्र कुटुम्ब समेत ॥ १७२ ॥ गुरु को पहचान कर राजा प्रसन्न हुप, भ्रम से उन्हें ज्ञान नहीं रहा । तुरन्त एक लाख श्रेष्ठ ब्राह्मणों को सपरिवार नेवता लिया ॥१७२॥ चौ०-उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि स्वति गाई। माया-मय तेहि कीन्हि रसोई। बिञ्जन बहु गनि सकइ न कोई ॥१॥ छः रस चार प्रकार के जेवनार की विधि जैसी वेदों में कही है, पुरोहित ने बनाया। उसने माया से रसोई तैयार की, बहुतं से व्यञ्जनों को कोई गिन नहीं सकता ॥ विविध मृगन्ह कर आमिषराँधा । तेहि महँ बिन सास खल साँधा । भोजन कह सब बिन बोलाये पद पखारि आसन बैठाये ॥२॥ तरह तरह के पशुओं का मांस पफाया; उस दुष्ट ने उसमें ब्राह्मण का मांस भी मिला दिया । राजा ने सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और उनके पाँव धो कर श्रासन पर वैठाया ॥२॥ परुसन जबहि लाग महिपाला । भइ अकास-धानो तेहि काला ॥ विप्र-वृन्द उठि उठि गृह जाहू । है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥३॥ जय राजा परोसने लगे उस समय आकाशवाणी ई कि हे ब्राह्मण वृन्द ! उठ उठ अपने अपने घर जाइये, इस अन्न को मत खाइये, बड़ी हानि है ॥३॥ भयउ रसाई भूसुर मासू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासुं। भूप विकल मति माह भुलानी । भावो बस न आव मुख वानी ॥४॥ ब्राह्मण के मांस की रसोई हुई है, सब ब्राह्मण विश्वास मान कर उठ खड़े हुए।गजा की बुद्धि अज्ञान में भुला गई, होनहार के वश उनके मुख से बात न निकली ॥४॥ पुरोहित रूपधारी राक्षस अपनी की हुई कपट की करनी राजा के विनाशार्थ ब्राह्मणों पर प्रकट करने का अवसर जान कर सोचने लगा कि यदि सोधे कहूँगा तो छानबीन, होने लगेगी और सारी कलई खुल जायगी। ब्रह्म वाणी पर ब्राह्मणों का झटपट विश्वास होगा, इसलिए 'उसकी ओट लेकर कार्य करना ठोक होगा। तुरन्त अदृश्य हो कर व्योम में गया और आकाश