पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२३७

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॥ रामचरित मानस । १८२ दो-छुधा-छीन बल-हीन सुर, सहजहि मिलिहहिँ आइ । तब मारिहउँ कि छाडिहउँ, अली भाँति अपनाइ ॥११॥ जब देवता भूख से दुवले और निर्वल हो जायगे सहज में आ मिलेंगे। अब उन्हें अच्छी तरह अपने काबू में कर के चाहे माझंगा या छोड़ दूंगा ॥११॥ चौ०--मेघनाद कहँ पुनि हँकरावा । दीन्ही सिख बल बयर बढ़ावा । जे सुर समर-धीर बलबाना । जिन्ह के लरिचे कर अमिमाना ॥१॥ फिर मेघनाद को बुलवाया, उसे वल और धैर का बढ़ावा देकर सिखाया कि जो देवता युद्ध में साहसी और बलवान हैं, जिनको लड़ने का धमण्ड है ॥१॥ तिन्हहि जीति रन आने बाँधी । उठि सुन पितु-अनुसासन काँधी एहि बिधि सबही आज्ञा दोन्ही । आपुन चलेउ गदा कर लोन्ही ॥२॥ हे पुत्र ! उन्हें रण में जीत कर बाँध लाना, मेघनाद पिता को आशा शिरोधार्य कर उठा और चल दिया। इस प्रकार सभी को शादी और गदा हाथ में लेकर आप भी चला ॥२॥ चलत दसानन डोलसि अवनी। गर्जत गर्भ-सत्रत सुर-रवनो। रावन आवत सुनेउ सोहा । देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥३॥ रावण के चलते समय पृथ्वी डगमगा रही थी और गजेने से देवानामों के गर्भ गिर जाते थे । रावण को क्रोधातुर ाते हुए सुन कर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफामों में शरण ली ॥३॥ दिगपालन्ह के लोक सुहाये। सूने पुनि पुनि सिंहनाद करि मारी । देइ देवतन्ह गोरि प्रचारी ।। सम्पूर्ण विकपालों के सुहावने लोकों को रावण ने खालो पाया। बार वार सिंह के समान भयङ्कर गर्जन कर देवताओं को ललकारता और गाली देता है ॥ ४॥ देवताओं के मन में रावण के क्रोध से भय स्थायीभाव है। उसका बार बार सिंहनाद करना उद्दीपन विभाव ओर रावण पालम्बन विभाव है। स्त्रियों का गर्भपतन, पर्वत की कन्दराओं में भाग कर घुसना अनुभाव है। वह चिन्ता, मोह, दैन्य, आवेग, चपलतादि सञ्चारीमावों के आविर्भाव से 'भयानक रस' हुआ है। . रन-मद मत्त फिरइ जग धावा । प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा । रविससि पवन बरुन धन-धारी । अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥५॥ रण के मद में मतवाला जगत् में दौड़ता फिरता है, अपनी वरावरी का योखा दवा है; पर कहाँ पाता नहीं । सूर्य, चन्द्रमा, पवन, वरुण, कुवेर, अग्नि, काल और यमराज सभी स्वत्वधारी (जो लोकों के स्वामी, अखियारवाले थे) ॥ ५॥ दसानन पाये।