पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२५१

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रामचरित मानस । . दो०-गृह गृह बाज बधाव सुभ, प्रगटे सुखमा-कन्द । हरषवन्त सब जहँ तह, नगर नारि-नर-वृन्द ॥१९॥ शोभा के मूल (रामचन्द्रजी) प्रकट हुए, इसलिए: घर घर मगल-सूचक बधाइयाँ बज रही हैं। नगर के स्त्री पुरुषों के झुण्ड सप जहाँ तहाँ आनन्दित हैं ॥११॥ राजपुत्र के जन्मोत्सव से सब के विच में प्रसन्नता का होना 'हर्ष सधारीभाव है। गुटका में 'प्रगटे प्रभु सुखकन्द' पाठ है। चौ०-कैकय-सुतो सुमित्रा दोऊ । सुन्दर-सुत जनमत भइँ ओऊ ॥ वह सुख सम्पति समय समाजा । कहि न सकइ सारद अहिराजा ॥१॥ केकयी और सुमित्रा उन दोनों ने भी सुदर पुत्र उत्पन्न किए । शिवजी कहते हैं- पार्वती! उस समय के सुन ऐश्वर्या के समाज को सरस्वती और शेष भी नहीं कह सकते ३१॥ अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥ देखि भानु जनु मन सकुचानी । तदपि बनी सन्ध्या अनुमानी ॥२॥ अयोध्यापुरी इस तरह शोभित हो रही है, मानों प्रभु गमचन्द्रजी से मिलने के लिए रात आई हो। वह मानां सूर्य को देख कर मन में लजा गई है, तो भी विचार कर सन्या के रूप में बनी है ॥२॥ रानि जड़ है उसे दोपहर में आने को कहना केवल कवि की कल्पना मात्र 'अनुलविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। जह वस्तु का सूर्य से लजाना असिद्ध आधार है इस अहेतु को हेतु ठहराना 'प्रसिद्ध विषया हेतू प्रेक्षा अलंकार है। अगर-धूप बहु जनु अँधियारी । उड़इ अवीर मनहुँ अरुनारी । मन्दिर-मनि-समूह जनु तारा । नृपं गृह कलस सेो इन्दु उदारा ॥३॥ अगर के धूर का बहुत धुपा माने अन्धकार है, अोर उड़ती है वही मानो लखाई है। मन्दिरों के रत्न समूह मान तारागण है और राजमहल के कलय वह मानों श्रेष्ठ चन्द्रमा है ॥३॥ भवन बेद-धुनि अति मृदुनानी । जनु खग मुखर समय जनु सानी। कौतुक देखि पतङ्ग भुलाना । एक मास तेई जात न जाना uan घरों में अत्यन्त कोमल वाणो से वेद-ध्वनि हो रही है, वह ऐसी मालूस होती है मानों चिड़ियों को बोली है और समय से मिली सुहावनी लगती है। यह कुतूहल देख कर बर्फा भुला गये, एक महीने का दिन उन्होंने जाते नहीं जाना ॥४॥ पक्षियों की बोली समझ में नहीं आती, पर समयानुकूल सुहावनी लगती ही है। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रता,अलंकार' है।।...