पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२६३

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२०८ रामचरित-मानस। दो-देहु भूप मन हरषित, तजहु माह अज्ञान। धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कॉ, इन्ह कहँ अति कल्यान ॥ २०७ ॥ राजन् ! प्रसन्न मन से मोह और ज्ञान त्याग कर दीजिए प्रभो! श्राप को धर्म और सुयश है एवम् इनका अत्यन्त कल्याण होगा ॥२०॥ चौ०-सुनि राजाअतिअप्रिय बानी । हृदय-कम्प मुख-दुति-कुम्हिलानी। चौथेपन पायउँ सुत चारी । बिप्रबचन नहिं कहेउ विचारी ॥१॥ अत्यन्त अप्रिय वचन सुन कर राजा का हृदय फाँप उठा और मुख की कान्ति कुव्हिला गई। उन्होंने कहा-हे ब्राह्मण देवता! मैं ने बुढ़ापे में चार पुत्र पाया, आपने विचार कर बात नहीं कहीशा माँगहु भूमि धेनु धन कोसा। सरबस देउँ आजु सहरोसा ॥ देह प्रान तँ प्रिय कछु नाहौँ । सोउ मुनि देउँनिमिष एक माहीं॥२॥ पृथ्वी, गैया, धन, भण्डार माँगिये, आज मैं प्रसन्नता से सर्वस्व दे डालूगा। शरीर और से बढ़ कर कुछ प्रिय नहीं है, हे मुनि ! मैं उसे भी एक पल में दे दूंगा ॥२॥ 'सहरोस' शब्द का अर्थ है-प्रसन्नतापूर्वक, खुशी ले । पर कुछ लोग बिना जाने "रोच के साध, या विना चिढ़े हुए अथवा शूरता समेत अर्थ करते हैं। वह यथार्थ नहीं है। भरण्य काण्ड में 'सुलु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा' है। वहाँ भी प्रसन्नता के साथ अर्थ है। सब सुत प्रियमाहि प्रान कि नाँई। राम देत नहिँ बनइ गेसाँई ॥ कहँ निसिचर अति घोर कठोरा । कहँ सुन्दरं सुत परम किसोरा ॥३॥ हे स्वामिन् ! मुझे सब पुत्र प्राण केसमान प्यारे हैं। किन्तु रामचन्द्र को तो देते न बनेगा। कहाँ राक्षस अत्यन्त भीषण कठोर और कहाँ अतिशय सुन्दर किशोर (१५ वर्ष की अवस्था के) प्राण वालक!॥३॥ सुनि नृप-गिरा प्रेम-रस-सानी । हृदय हरष माना मुनि ज्ञानी ॥ तब बसिष्ठ बहु बिधि समुभावा। नृप सन्देह नास कह पावा ॥४॥ प्रेम रस से सनी हुई राजा की वाणी सुन कर झानीमुनि ने वृदय में हर्ष माना। तब बशिष्टजी ने राजा को बहुत तरह समझाया जिससे उनका सन्देह नष्ट हो गया ॥४॥ अति आदर दोउ तनय बोलाये । हृदय लाइ बहु भाँति सिखाये । मेरे प्राननाथ सुत दोज । तुम्ह मुनिपिता आन नहिं कोऊ॥३॥ बड़े आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हदय से लगा कर बहुत तरह सिखाया। फिर विश्वामित्रसे बोले-हे मुनि ! दोनों पुत्र मेरे प्राणेश्वर हैं, उनके पापही पिता हैं दूसरा कोई नहीं ॥५॥ .