पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२८९

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रामचरितमानस २३२ 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। उत्तरार्द्ध में समस्त उपमानों को अयोग्य ठहराना पञ्चम प्रतीप की ध्वनि है। दो-सिय साझा हिय बरनि प्रभु, आपनि दसा विचारि। बोले सुचि-मन अनुज सन, बचन समय अनुहारि ॥ २३० ॥ सीताजी की शोभा हृदय में बखान कर प्रभु रामचन्द्रजी अपनी दग्गा विचार कर पवित्र भन से समयानुकूल वचन छोटे भाई से घोले ॥२०॥ यहाँ 'सुचि मन' शब्द में अस्फुट गुणीभूत व्यङ्ग है कि जो घात लक्ष्मणोजी से कहने योग्य नथी, वह भी कह दी। अपनी दशा विचारने में धर्म परायणता और सदाचार की दता व्यजित होना गूढ़ व्यङ्ग है। चौ०-तात जनक तनया यह साई । धनुष-यज्ञ जेहि कापुन हाई ॥ पूजन गौरि सखी लेइ आई । करत प्रकास फिरइ फुल्नवाई ॥१॥ हे तात ! यह वही जमक राजा की कन्या है, जिसके लिए धनुपयश होता है । गौरी-पूजन के लिए सखियों ले आई हैं, जो यहाँ फुलवाड़ी में घूमती हुई प्रकाश करती है ॥१॥ रामचन्द्रजी ने जन्मकाले ले आज पर्यन्त जानकीजी को नहीं देखा था, यह प्रथम सेमा गम है । पर भाई को परिचित की तरह परिचय कराने में प्रत्यक्षप्रमाण अलंकार' है, क्यों कि नगर के बालकों से सुन चुके हैं कि राजकन्या प्रतिदिन बाग में गिरिजा-पूजन के लिये जात है। इसी प्रमाण से पहचान गये। जासु बिलोकि अलौकिक सोमा । सहज पुनीत मार मन छोमा । सौ सब कारन जान बिधाता । फरकहि सुभग अङ्ग सुनु भ्राता ॥३॥ जिसकी साधारण छवि देख कर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन विचलित हो गया है। उसका सब कारण तो ब्रह्मा जाने, हे भाई ! सुनिए, मेरे सुन्दर श्रङ्ग फड़कते हैं ॥२॥ जिसकी अलौकिक शोभा पर मेरा सहज पवित्र मन शुन्ध हुआ है, इस यात का समर्थन हेतु सूचक बात कह कर करना कि कारण तो ईश्वर जाने पर मेरा सुन्दर दाहना अङ्ग फड़कता है अर्थात् सीता मुझे प्राप्त होंगी 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है । गुटका में 'फरकहिँ सुमद अंग' पाठ है। रघुवंसिन्ह कर सहज सुभाऊ । भन कुपन्थ पग घरइँ न काज ॥ मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहि सपनेहुँ पर-नारि न हेरी ॥३॥ रघुवंशियों का यह सहज स्वभाव है वे मन से भी कभी कुमार्ग में पाँव नहीं रखते । मुझे 'अपने मन का बहुत बड़ा विश्वास है, जिसने स्वप्न में भी पराई स्त्री को नहीं देखा ॥३॥ अन्तिम चरण में प्रर्थान्तरसंक्रमित भगूद व्यग है कि ये पराई स्त्री नहीं, स्वकीय भार्या है इसी से मेरी निगाह इन पर पड़ी है।