पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। ॥ २६३॥ प्रथम सोपान, बालकाण्ड । रामहि लखनं बिलोकत कैसे । ससिहि चकोर किसारक जैसे ॥ सतानन्द तब आयसु दीन्ही । सीता गवन राम पहिँ कीन्हीं ॥१॥ रामचन्द्रजी को लक्ष्मणजी कैसे देखते हैं, जैसे किशोर अवस्था का चकार चन्द्रमा को (प्रेम भरी दृष्टि से) निहारता है । जब शतानन्दजी ने श्राशा की तब सीताजी ने रामचन्द्रजी के समीप में गमन किया ॥४॥ सभा की प्रति में 'दीन्हा-कीन्हा' तुकान्त है । दो०-सङ्ग सखी सुन्दर चतुर, गावहिँ मङ्गलबार । गवनी बाल-मराल-गति, सुखमा अङ्ग अपार ॥२६३॥ साथ में सुन्दर चतुर सखियाँ मङ्गलाचार गान करती हैं। बाल-राजहंसिनी की (धीमी) चाल से चलों, उनके अङ्गो की छवि अपार चौ०-सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसी। छबि-गन-मध्य महाछबि जैसी ॥ कर सरोज जयमाल सुहाई । घिस्व-बिजय-सामा जेहि छाई ॥१॥ सखियों के बीच में सीताजी फैली साहती हैं, जैसी छवि को मण्डली में महाकवि शोभित हो। कर-कमलों में सुहावनी जयमाला है, जिसमें संसार की विजयश्री टिकी हुई है ॥१॥ 'जयमाल' शन्द स्त्रीलिङ्ग है, पुल्लि नहीं यथा खसी माल मुरति मुसुकानी, पुन:-सिय जयमाल राम उर मेली। सभा की प्रति में विस्व-विजय-सोभा जनु छाई' पाठ है। धनुष तोड़ने में सारे लोको के योद्धा हार गये, उस धनुष को रामचन्द्रजी ने तोड़ा। इसी से जय- माल.में तीनों लोको की विजयश्री है। तन सकोच मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेम लखि परइ न काहू ॥ जाइ .समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥२॥ शरीर (लज्जा से) सिकुड़ रहा है, किन्तु मन में बड़ा उत्साह है, यह छिपा हुआ प्रेम किसी को लख नहीं पड़ता है। जब कुवरि ने समीप जा कर रामचन्द्रजी की छवि देखी, तब वे ऐसी मालूम होने लगी मानों लिखी हुई तुसबीर है। ॥२॥ मन में परम उमङ्ग है, किन्तु इस गूढ प्रेम को तन के सिफोह से छिपाना 'श्रवाहित्य सञ्चारी भाव' है। चतुर सखी लखि कहा बुझाई । पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥ सुनत जुगल कर मोल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥३॥ चतुर सखी ने ( सीताजी का स्तम्भ अनुभाष ) लख कर समझा कर कहा कि मुहावनी जयमाल पहनाइए । सुनते ही दोनों हाथों से माला उठाई, परन्तु प्रेमाधीन होने से वह पह- भाई नहीं जाती है ॥३॥