पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२३

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6 २६६ रामचरित मानस । रही भुवन भरि जय जय बानी । धनुष-भङ्ग धुनि जात न जानी ॥ मुदित कहहिँ जहँ तहँ नर नारी । भजेउ राम सम्भु धनु भारी ॥ जय जय का शब्द लोकों में भर रहो, धनुष टूटने की ध्वनि बिलोन होते मालूम हो न हुई अर्थात् वह जय जयकार के हल्ले में लीन हो गई । जहाँ तहाँ स्त्री-पुरुष प्रसन्नता से कहते हैं कि रामचन्द्रजी ने शङ्कर के भारी धनुष को तोड़ दिया। इनमें महान् पराक्रम है। धनुष भक्त के भीषण शब्द का भय भाव लोकों में फैलते देरी नहीं कि उत्साह-पूर्ण अय जयकार का हर्ष भाव प्रबल होने से भय उसमें लीन हो गया। सब आनन्द में भर गये किसी को भय का स्मरण ही न रहा । यह मावशान्ति' है। दो-बन्दी मागध सूत गन, बिरदः बदहिँ मतिधीर । करहि निछावरि लोग सब, हय गय धन मनि चीर ॥ २६२ ॥ झुण्ड के झुण्ड धीर बुद्धिवाले बन्दीजन, मागध और सूत नामवरी चलानते हैं। सब लोग हाथी, घोड़ा, द्रव्य, मणि और वस्त्र की निछावर करते हैं ॥२२॥ चौ०-झाँझ मृदङ्ग सङ्क सहनाई । भेरि ढोल दुन्दुभी सुहाई॥ बाहिँ बहु बाजने सुहाये । जहँ तहँ जुप्रतिन्ह मङ्गल गाये ॥१॥ झाँझ, मृदङ्ग, शंख,सहभाई, तुरुही, ढोल और मुन्द्र नगारे नादि बहुत से सुहावने बाजे चजते हैं, जहाँ वहाँ स्त्रियाँ,मङ्गल गातो हैं ॥१॥ सखिन्ह सहित हरषीं सब रानी । सूखत धान परा जनु पानी ॥ जनक लहेउ सुख सोच बिहाई । पैरत थके थाह जनु पाई ॥२॥ सखियों के सहित सव गनियाँ प्रसन्न हुई. वे ऐसी हरी भरी मालूम होती हैं मानो सु: नते हुए धान पर पानी पड़ा हो । राजा जनक सोच छोड़ कर आनन्द को प्राप्त हुए, वे ऐसे प्रसन्न जान पड़ते हैं मानों पानी में तैरते हुए थक कर थाह पा गये हैं। ॥२॥ सूखते हुए धान पर पानी पड़ने से वह हरा भरा होता ही है और पानी में तैरते तैरते. थके हुए को थाह मिलने पर सुख होता ही है। दोनों उक्तविपया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। जनकजी के हृदय में पहले सोच था, फिर सुख श्रोया। आधार पक राजा जनक है, माश्रय लेनेवाले सोच, सुस्न भिन्न भिन्न हैं । यह वित्तीय पर्याय अलंकार है। श्रीहत भये भूप धनु टूटे । जैसे दिवस दीप छबि छूटे । सीथ सुखहि बरनिय केहि भाँती । जनु चातको पाइ जल स्वाती ॥३॥ धनुष के टूटने से राजा लोग कैसे श्रीहत हुए जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती । सीताजी के सुख का वर्णन किस तरह कीं, वे ऐसी मालूम होता है मानो चातकी ने स्वाती का जल पाया हो ॥३॥ 1