पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३६

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अंबतक राजापुर में गोस्वामीजी को कुत्री पर वर्तमान है। उसके अक्षरों का फोटो हमने देखा है। इन अक्षरों से मलिहाबादवाली पुस्तक के अक्षर नहीं मिलते और केवल आध ही घंटा में हूँढ़ने पर हमें उसमें गङ्गा उत्पत्ति की कथावाला झोपक भी मिला।" मलिहाबाद से चल कर प्रभाती में स्नान करके वाल्मीकिजी के आश्रम में गये। फिर वहाँ से चल कर रसूलाबाद के पास कोटरा गाँव में अनन्यमाधवदास से मिले, वहाँ से सण्डीला होते हुए वृन्दावन आये। उस दिन नामीजी के यहाँ वैष्णवे का भण्डारा था। यह सुन कर गोसाँईजी जिना बुलाये ही वहाँ चले गये । उस समय पक्षति त्रैठ चुकी थी और सब के सामने पत्तल पर सुनार लोग प्रसाद परस रहे थे । गोस्वामीजी को किसी ने नहीं पहचाना, ये बाहर ही खड़े रहे । जब परसने वाले सामने भाये, तब इन्होंने एक साधु का जूता हाथ से उठा कर उसी में अपने वास्ते खोर डाल देने के लिये कहां। इनके वेश और तेज को देख लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ और परसनेवाले ठिठक गये। तब गास्वामीजी ने यह दोहा कहा- तुलसी जाके मुखन्ह ते, धोखेउ निकरत राम । ताके पग की पगतरी, मेरे तन को चाम ॥ नाम सुनते ही नामाजी ने दौड़ कर उन्हे गले लगा लिया और बड़े आदर के साथ ले जाकर सुन्दर आसन पर बैठाया। नाभाजी ने कहा कि आज हमें सन्तों के सुमेरु मिल गये । सन्मानपूर्वक भोजन कराया। प्रियादासजी और न्यूनाधिक रूप में प्रायः सभी लेखकों ने इस बात का जिक्र किया है कि किसी मन्दिर में कृष्णमूर्ति को गोसाँईजी ने रामभूति कह कर दंडवत किया और वह मूर्ति वास्तव में धनुष-बाणधारी हो गयी। परन्तु यह बात कहाँ तक ठीक है कुछ नहीं कहा जा सकता। श्रीकृष्णचन्द्र भगवान में गोस्वामीजी का प्रेम था, उन्होंने कृष्ण गीतावली शनाया है और कृष्णलीला करवाते थे। फिर यह बात समझ में नहीं आती कि ऐसा उन्होंने किस कारण से किया था। मीराबाई का पत्रx मेवाड़ के राजकुमार भोजराज की पत्नी मीराबाई भगवद्भक्ति परायणा थी। उनका समय अधि. कांश सत्संग ही में व्यतीत होता था और वे लदा हरि-कीर्तन में अनुरक रहती थी। लोकनिन विचार से राणाजी को मीरा को यह चाल बहुत बुरी लगती थी। उन्हों ने बहुत समझाया बुझायां, पर मीरा ने उनके कथन पर कुछ ध्यान नहीं दिया और अपने सिद्धान्त में अटल बनी रही । अन्त में मीरा को मार डालने के लिये राणा ने बहुतेरा प्रयत्न किया; परन्तु हरि कृपा से वे सब निष्फल हुए और मीरा का बाल बाँकी नहीं हुआ। कुटुम्धियों के ताइन से मीराबाई को बड़ा कष्ट होने लगा, तुलसीदासजी का निर्मल यश उन्हों ने सुन रखा था। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि गोसाँईजी वृन्दावन में विद्यमान हैं, तब नीचे लिखा पद्य अपने किसा विश्वासी मनुष्य के हाथ गोस्वामीजी की सेवा में प्रेषित किया। स्वस्तिश्री तुलसी गुण भूपण दूपण हरण गुसाई । वारहि बार प्रणाम करत है, हरहु शोक समुदाई ॥१॥ घर के स्वजन हमारे जेते, सबन्हि उपाधि बढ़ाई। साधु सग मिलि भजन करत मोहि, देत कलेसमहाई ॥२॥ ४ इनकी बाणी न शब्दावली मै जीवन चरित्र के बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग से ) में प्राप्त हो सकती है।