पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३९१

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रामचरित मानस । सम्बन्ध राजन रावरे हम, बड़े अब सब विधि भये । यह राज साज समेत सेवक, जानित्री बिनु गथ लये ॥३९॥ फिर जनकजी भाई के सहित कोशलराज से हाथ जोड़ कर स्वाभाविक शील और स्नेह से सने हुए मनोहर वचन बोले । हे राजन् ! आपके सम्बन्ध ( नातेदारी) से हम सय तरह बड़े हुए। इस राज-पाट के सहित मुझे विना मोल लिया हुश्रा अपना सेवक समझियेगा ॥ ३६॥ ये दारिका परिचोरिका करि, पालबी करुनामई। अपराध छमिबो बोलि पठये, बहुत हैाँ ढीठयो दई । पुनि भानुकुल-भूषन सकल सनमान निधि समधी किया। कहि जाति नहिं बिनती परसपर, प्रेम परिपूरन हियो ॥४॥ इन कन्याओं को अपनी दासी मान कर दया-पूर्वक पालियेगा। मैंने आप को बुला भेजा! . . है देव ! यह बड़ी ढिठाई हुई, इस अपराध को क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुल के भूषण (दशरथजी) ने सम्माननीय समधी का सब तरह सत्कार किया। परस्पर प्रेम परिपूर्ण उदय से बिनती करते हैं, वह कही नहीं जाती है ॥४॥ वृन्दारका-गन सुमन घरपहि, राउ जनवासहि चले। दुन्दुभी-जयधुनि बेद-धुनि नभ, नगर कोतूहल भले । तब सखी मङ्गल-गान करत, मुनीस आयसु पाइ के । दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुन्दरि, चली कोहबर ल्याइ कै ॥४१॥ राजा जनवास को चले, देववृन्द फूल बरसाते हैं । नगाड़े की ध्वनि, जयध्वनि और वेध्वनि से अाकाश तथा नगर में अच्छा आनन्द' छा रहा है । तब मुनीश्वर की आशा पा । सखियाँ मङ्गलगान करती हुई सुन्दर दुलहिनियों को दूलहै। के सहित कोहबर में लिया कर चलीं ॥४१॥ दो०-पुनि पुनि रामहिँ चितव सिय, सकुचति मन सकुचै न । हरत मनोहर मीन छथि, प्रेम पियासे नैन ॥३२६॥ सीताजी बार बार रामचन्द्रजी को निहारती और सकुची जाती हैं, परन्तु उनका मन नहीं सकुचता है। प्रेम के प्यासे नेत्र मनोहर मछली की छवि को हरते हैं । ३२६ ॥ सीताजी का बार बार रामचन्द्रजी को देखना और लजाना दर्शन के लालच से रामः चन्द्रजी की ओर देखती हैं और सखियों का स्मरण आते ही लज्जा से सिर नीचे कर लेती हैं । उत्सुकता और लज्जा भाव अपनी ओर खींचते हैं, दोनों भावों की सन्धि है।