पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस । भरि भरि बसह अपार कहारा । पठचे जनक अनेक सुआरा ॥ तुरंग-लाख रथ-सहस-पचीसा । सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥३॥ बैलों पर भर भर कर अपार कहार और असंख्यो रसोई पनानेवालों को जनकजी ने भेजा । एक लाख घोड़े और पचीस हज़ार रथ सब नख से शिखा पर्यान्त सजाये हुए ॥३n मत्त सहस दस सिन्धुर साजे । जिन्हहिं देखि दिसि-कुञ्जर लाजे॥ कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषी धेनु बस्तु बिधि नाना ॥४॥ दस हज़ार सजाये हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देख कर दिशाओं के हाथी लजा जाते हैं। सोना, वस्त्र और रत्न गाड़ियों में भर भर कर भैस, गाय तथा नाना प्रकार की चीजें दी nen दिग्गज पाठ हैं, यथा-"पूर्व दिशा का ऐरावत, अग्निकोण का पुण्डरीक, दक्षिण का वामन, नैऋतकोण का कुमुद, पश्चिम का अञ्जन, वायुकोण का पुष्पदन्त, उत्तर का सार्वभौम और ईशानकोण का सुप्रतीक। दो-दाइज अमित न सक्रिय कहि, दीन्ह बिदेह बहोरि । जो अवलोकत लोकपति, लोकसम्पदा थोरि ॥३३३॥ जनकजी ने फिर अपरिमित बहेज दिया जो कहा नहीं जा सकता। जिसे देख कर लोक- पालों को अपने अपने लोका की सम्पत्ति तुच्छ प्रतीत होती है ॥ ३३॥ लोकपाल इस हैं, यथा-"पूर्व दिशा के इन्द्र, अग्निकोण के अग्नि, दक्षिण के यम, नैऋत के नैऋत, पश्चिम के वरुण, वायव्य के पवन, उत्तर के कुचेर, ईशान के ईश, आकाश के ब्रह्मा और पाताल के अनन्त हैं। चौ०-सब समाज एहि भाँति बनाई । जनक अवधपुर दीन्ह पठाई । चलिहि बरात सुनत सब रानी । विकलमीन-गन जनु लघु पानी ॥१॥ इस तरह सब समाज बना कर जनकजी ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। वरात चलने की बात सुनते ही सब रानियाँ विकल हो गई, ऐसी मालूम होती है मानों थोड़े जल में मछलियाँ अकुलाई हो ॥१॥ पुनि पुनि सीय गोद करि लेही। देह असीस सिखावन देहीं ॥ होयेहु सन्तत पियहि पियारी । चिर अहिवात असीस हमारी ॥२॥ बार बार सीताजी को गोदी में कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं। सदा अपने प्रीतम की प्यारी (आनाकारिणी ) होना, तुम्हारा अहिवात अखण्ड हो; हमारा यही आशीर्वाद है ॥२॥ सासु ससुर गुरु सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ।। अति सनेह बस सखी सयानी । नारि-धरम सिखवहि मृदु-बानी ॥३॥ सास, श्वसुर, और गुरु की सेवा करना, पति का रुख देख कर उनकी आमा पालन फरना । अत्यन्त स्नेह के वश चतुर सखियाँ कोमल वाणी से स्त्री-धर्म सिखलाती हैं ॥३॥ ! !