पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४०२

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। प्रथम सोपान, बालकाण्ड । परिवार पुरजन माहि राजहि, प्रान प्रिय सिय जानबी। तुलसी सुसील सनेह लखि निज,-किङ्करी करि मानबी ॥४६॥ प्रार्थना कर के सीताजी को रोमचन्द्रजी के समर्पण किया और हाथ जोड़ कर बार बार कहती हैं । हे तात बलि जाती हूँ, आप चतुर हैं और सब की गति पाए को मालूम कुटुम्बी, नगर-निवासी, मुझ को और राजा को सीता प्राण समान प्रिय जानिये। तुलसी- दासजी कहते हैं कि इसकी सुशीलता और स्नेह को देख कर अपनी दासी समझियेगा ॥४॥ सो०- तुम्ह परिपूरन-काम, जान-सिरोमनि भाव प्रिय । जन-गुन-गाहक राम, दोष-दलन करुनायतन ॥३६॥ आप पूर्ण काम है, शानियों के शिरोमणि और आप को प्रेम प्यारा है । हे रामचन्द्रजी ! आप भक्तों के गुण के चोहनेवाले, दोषों के नाशक और दया के स्थान है ॥ ३३६ ॥ चौध-अस कहि रही चरन गहि रानी । प्रेम पङ्कजनु गिरा समानी ॥ सुनि सनेह सानी बर बानी । बहु बिधि राम सासु सनमानी॥१॥ ऐसा कह कर रानी पाँव पकड़ कर चुप रह गई, वे ऐसी मालूम होती हैं मानों उनकी वाणी प्रेम रूपी कीचड़ में समा गई हो। इस तरह स्नेह से सानी श्रेष्ट वाणी सुन कर रामचन्द्रजी ने सास का बहुत तरह से सम्मान किया ॥१॥ राम बिदा माँगा कर जोरी । कीन्ह प्रनाम बहारि बहारी। पाइ असीस बहुरि सिर नाई । भाइन्ह सहित चले रघुराई ॥२॥ रामचन्द्रजी ने हाथ जोड़ कर विदा माँगी और बार बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पा कर फिर मस्तक नवाया और भाइयों के सहित रघुनाथजी चले ॥२॥ मज-मधुर-मुरति उर आनी । मई सनेह. सिथिल सब रानी ॥ पुनि धीरज धरि कुँअरि हकारी । बार बार भैटहि महतारी ॥३॥ सुन्दर माधुरी सूर्ति को हदय में लाकर सब गनियाँ स्नेह से ढीली हो गई। फिर धीरज धारण कर के पुत्रियों को बुलाया और माताएँ बारम्बार मेंटने लगी ॥२॥ पहुँचावहिं फिरि मिलहिँ बहोरी । बढ़ी परसपर प्रीति न थोरी। पुनि पुनि मिलति सखिन्ह बिलगाई । बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई 12y पहुँचाती हैं फिर लौट कर मिलती हैं, दोनों ओर परस्पर बड़ी प्रीति बढ़ी। सखियों से बार बार अलगा कर मिलती हैं, जैसे हाल की व्याई हुई गैया अपने बालक बबड़े से मिलती है ।