पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४०३

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रामचरित मानस । दो-प्रेम-विबस नरनारि सब, सखिन्ह सहित रनिवास । मानहुँ कीन्ह विदेहपुर, करुना-बिरह-निवास ॥३३७॥ नगर के सव स्त्री-पुरुष और सखियों के सहित रनिवास प्रेम के अधीन हुए हैं। ऐसा मालूम होता है मानो जनक नगर में करुणा और घिरह निवास किये हैं। ॥३३७॥ पुत्रिवियोग का शोक स्थायी भाव है। पुत्रियाँ आलम्बन विभाव हैं। उनकी विदाई उहीपन विभाव है। रुदन करना, शिथिल हो कर भूमि पर गिरना, चिलखना आदि अनुभाव हैं। वह विषाद, चिन्ता, जड़ता, उन्माद, व्याधि, ग्लानि, निर्वेद, अपश्मारादि समचारी भावों द्वारा पुष्ट होकर 'करुणरस' संज्ञा को प्राप्त हुआ है। चौ०-सुक सारिका जानकी ज्याये । कनक-पिचरन्हि राखि. पढ़ाये। व्याकुल कहहिं कहाँ चैदेही । सुनि धीरज परिहरइ न केही ॥१॥ तोता और मैंना जानकीजी ने जिलाया था, उन्हें सोने के पीजड़े में रख कर पढ़ाया था। वेव्याकुन्त होकर कहते हैं कि विदेहनन्दिनी कहाँ हैं ? उनकी वाणी को सुन कर किसने धीरज नहीं छोड़ दिया अर्थात् सब अधीर हो गये। भये विकल खग मृग एहि भाँती । मनुज दसा कैसे कहि जाती। बन्धु समेत जनक तब आये । प्रेम उमगि लोचन जल छाये ॥२॥ जब पक्षी और पशु इस तरह विकल हुए, तब मनुष्यों फी दशा कैसे कही जा सकती है ? उसी समय भाई के सहित जनकजी वहाँ आये और प्रेम से उसड़ कर उनकी आँखों में आँसू भर पाया ॥२॥ पशुपक्षी का प्रेम से व्याकुल होना वर्णन रतिभावाभास है । जव पशुपक्षी. व्याकुल हुए तब मनुष्य को दशा कैसे कही जाय ? कान्यार्थापति अलंकार है। सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम-विरागी । लीन्हि राय उर लाइ जानकी । मिटी महा-मरजाद ज्ञान की ॥३॥ जो परम वैराग्यवान कहे जाते थे, सीताजी को देख कर उनका धीरज भाग गयो, राजा ने जानकीजी को हृदय से लगा लिया, उनके शान की बहुत बड़ी मर्यादा मिट गई ॥३॥ ज्ञानवान विरागी पुरुष को हप' या शोक न होना चाहिये। गीता में भगवान श्रीकृष्ण- चन्द्र ने कहा है-"नप्रहायेत् प्रियं प्राप्य नो द्विजेत् प्राप्य चामियम्" अर्थात् प्रिय वस्तु मिलने पर प्रसन्न न हो और अप्रिय के मिलने से घबरा न जाय । जनकजी पुत्री के वियोग से अधीर होकर शोकातुर हो गये, इससे शान की मर्यादा जाती रही। समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह विचार, अनवसर जाने । बारहि बार सुतो उर लाई । सजि सुन्दर पालकी मैंगाई ॥४॥ सब चतुर मन्त्री समझाते हैं, कुलमय जान कर विचार किया (कि यह अवसर विषाद करने का नहीं है ) । बारम्बार पुत्रिों को हदय से लगा कर सुन्दर सजी हुई पाखकी. मैंगपाई ॥४॥